Monday 4 December 2017

Democracy in india

 संस्कृत में लोक , "जनता" तथा तंत्र , "शासन",) या
प्रजातंत्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। यह शब्द लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक राज्य दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। यद्यपि लोकतंत्र शब्द का प्रयोग राजनीतिक सन्दर्भ में किया जाता है, किंतु लोकतंत्र का सिद्धांत दूसरे समूहों और संगठनों के लिये भी संगत है। सामांयतः लोकतंत्र विभिन्न सिद्धांतों के मिश्रण से बनते हैं, पर मतदान को लोकतंत्र के अधिकांश प्रकारों का चरित्रगत लक्षण माना जाता है।
लोकतंत्र के प्रकार
लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार यह "जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है"। लेकिन अलग-अलग देशकाल और परिस्थितियों में अलग-अलग धारणाओं के प्रयोग से इसकी अवधारणा कुछ जटिल हो गयी है। प्राचीनकाल से ही लोकतंत्र के सन्दर्भ में कई प्रस्ताव रखे गये हैं, पर इनमें से कई कभी क्रियान्वित नहीं हुए।
प्रतिनिधि लोकतंत्र
प्रतिनिधि लोकतंत्र में जनता सरकारी अधिकारियों को सीधे चुनती है। प्रतिनिधि किसी जिले या संसदीय क्षेत्र से चुने जाते हैं या कई समानुपातिक व्यवस्थाओं में सभी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुछ देशों में मिश्रित व्यवस्था प्रयुक्त होती है। यद्यपि इस तरह के लोकतंत्र में प्रतिनिधि जनता द्वारा निर्वाचित होते हैं, लेकिन जनता के हित में कार्य करने की नीतियां प्रतिनिधि स्वयं तय करते हैं। यद्यपि दलगत नीतियां, मतदाताओं में छवि, पुनः चुनाव जैसे कुछ कारक प्रतिनिधियों पर असर डालते हैं, किन्तु सामान्यतः इनमें से कुछ ही बाध्यकारी अनुदेश होते हैं। इस प्रणाली की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जनादेश का दबाव नीतिगत विचलनों पर रोक का काम करता है, क्योंकि नियमित अंतरालों पर सत्ता की वैधता हेतु चुनाव अनिवार्य हैं।
उदार लोकतंत्र
एक तरह का प्रतिनिधि लोकतंत्र है, जिसमें स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव होते हैं। उदार लोकतंत्र के चरित्रगत लक्षणों में, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, कानून व्यवस्था, शक्तियों के वितरण आदि के अलावा अभिव्यक्ति, भाषा, सभा, धर्म और संपत्ति की स्वतंत्रता प्रमुख है।
प्रत्यक्ष लोकतंत्र
प्रत्यक्ष लोकतंत्र में सभी नागरिक सारे महत्वपुर्ण नीतिगत फैसलों पर मतदान करते हैं। इसे प्रत्यक्ष कहा जाता है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से इसमें कोई प्रतिनिधि या मध्यस्थ नहीं होता। सभी प्रत्यक्ष लोकतंत्र छोटे समुदाय या नगर-राष्ट्रों में हैं। उदाहरण -स्विट्जरलैंड
भारत में लोकतंत्र के प्राचीनतम प्रयोग
प्राचीन काल मे भारत में सुदृढ़ व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस बात के प्रमाण हैं।
प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनके चुनाव की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न जरूर थी। सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है परंतु उन्होंने वोट देने के अधिकार पर रोशनी नहीं डाली है।
वर्तमान संसद की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया गया था। जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय परिषद में 7707 सदस्य थे। वहीं यौधेय की केन्द्रीय परिषद के 5000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।
किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था। बहुमत से लिये गये निर्णय को ‘भूयिसिक्किम’ कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग का सहारा लेना पड़ता था। तत्कालीन समय में वोट को ‘छन्द’ कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख रेख करने वाला भी एक अधिकारी होता था जिसे शलाकाग्राहक कहते थे। वोट देने के लिए तीन प्रणालियां थीं।
(1) गूढ़क (गुप्त रूप से) – अर्थात अपना मत किसी पत्र पर लिखकर जिसमें वोट देने वाले व्यक्ति का नाम नहीं आता था।
(2) विवृतक (प्रकट रूप से) – इस प्रक्रिया में व्यक्ति संबंधित विषय के प्रति अपने विचार सबके सामने प्रकट करता था। अर्थात खुले आम घोषणा।
(3) संकर्णजल्पक (शलाकाग्राहक के कान में चुपके से कहना) - सदस्य इन तीनों में से कोई भी एक प्रक्रिया अपनाने के लिए स्वतंत्र थे। शलाकाग्राहक पूरी मुस्तैदी एवं ईमानदारी से इन वोटों का हिसाब करता था।
इस तरह हम पाते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे देश में गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी। इसके अलावा सुव्यवस्थित शासन के संचालन हेतु अनेक मंत्रालयों का भी निर्माण किया गया था। उत्तम गुणों एवं योग्यता के आधार पर इन मंत्रालयों के अधिकारियों का चुनाव किया जाता था।
मंत्रालयों के प्रमुख विभाग थे-
(1) औद्योगिक तथा शिल्प संबंधी विभाग
(2) विदेश विभाग
(3) जनगणना
(4) क्रय विक्रय के नियमों का निर्धारण
मंत्रिमंडल का उल्लेख हमें ‘अर्थशास्त्र’ ‘मनुस्मृति’, ‘शुक्रनीति’, ‘महाभारत’, इत्यादि में प्राप्त होता है। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में इन्हें ‘रत्नि’ कहा गया। महाभारत के अनुसार मंत्रिमंडल में 6 सदस्य होते थे। मनु के अनुसार सदस्य संख्या 7-8 होती थी। शुक्र ने इसके लिए 10 की संख्या निर्धारित की थी।
इनके कार्य इस प्रकार थे:-
(1) पुरोहित - यह राजा का गुरु माना जाता था। राजनीति और धर्म दोनों में निपुण व्यक्ति को ही यह पद दिया जाता था।
(2) उपराज (राजप्रतिनिधि)- इसका कार्य राजा की अनुपस्थिति में शासन व्यवस्था का संचालन करना था।
(3) प्रधान - प्रधान अथवा प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य था। वह सभी विभागों की देखभाल करता था।
(4) सचिव - वर्तमान के रक्षा मंत्री की तरह ही इसका काम राज्य की सुरक्षा व्यवस्था संबंधी कार्यों को देखना था।
(5) सुमन्त्र - राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखना इसका कार्य था। चाणक्य ने इसको समर्हत्ता कहा।
(6) अमात्य - अमात्य का कार्य संपूर्ण राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का नियमन करना था।
(7) दूत - वर्तमान काल की इंटेलीजेंसी की तरह दूत का कार्य गुप्तचर विभाग को संगठित करना था। यह राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विभाग माना जाता था।
इनके अलावा भी कई विभाग थे। इतना ही नहीं वर्तमान काल की तरह ही पंचायती व्यवस्था भी हमें अपने देश में देखने को मिलती है। शासन की मूल इकाई गांवों को ही माना गया था। प्रत्येक गांव में एक ग्राम-सभा होती थी। जो गांव की प्रशासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था से लेकर गांव के प्रत्येक कल्याणकारी काम को अंजाम देती थी। इनका कार्य गांव की प्रत्येक समस्या का निपटारा करना, आर्थिक उन्नति, रक्षा कार्य, समुन्नत शासन व्यवस्था की स्थापना कर एक आदर्श गांव तैयार करना था। ग्रामसभा के प्रमुख को ग्रामणी कहा जाता था।
सारा राज्य छोटी-छोटी शासन इकाइयों में बंटा था और प्रत्येक इकाई अपने में एक छोटे राज्य सी थी और स्थानिक शासन के निमित्त अपने में पूर्ण थी। समस्त राज्य की शासन सत्ता एक सभा के अधीन थी, जिसके सदस्य उन शासन-इकाइयों के प्रधान होते थे।
एक निश्चित काल के लिए सबका एक मुख्य अथवा अध्यक्ष निर्वाचित होता था। यदि सभा बड़ी होती तो उसके सदस्यों में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी। यह शासन व्यवस्था एथेन्स में क्लाइस्थेनीज के संविधान से मिलती-जुलती थी। सभा में युवा एवं वृद्ध हर उम्र के लोग होते थे। उनकी बैठक एक भवन में होती थी, जो सभागार कहलाता था।
एक प्राचीन उल्लेख के अनुसार अपराधी पहले विचारार्थ विनिच्चयमहामात्र नामक अधिकारी के पास उपस्थित किया जाता था। निरपराध होने पर अभियुक्त को वह मुक्त कर सकता था पर दण्ड नहीं दे सकता था। उसे अपने से ऊंचे न्यायालय भेज देता था। इस तरह अभियुक्त को छ: उच्च न्यायालयों के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता था। केवल राजा को दंड देने का अधिकार था। धर्मशास्त्र और पूर्व की नजीरों के आधार पर ही दण्ड होता था।
देश में कई गणराज्य विद्यमान थे। मौर्य साम्राज्य का उदय इन गणराज्यों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। परंतु मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात कुछ नये लोकतांत्रिक राज्यों ने जन्म लिया। यथा यौधेय, मानव और आर्जुनीयन इत्यादि।
प्राचीन भारत के कुछ प्रमुख गणराज्यों का ब्योरा इस प्रकार है:-
शाक्य - शाक्य गणराज्य वर्तमान बस्ती और गोरखपुर जिला (उत्तर प्रदेश) के क्षेत्र में स्थित था। इस गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु थी। यह सात दीवारों से घिरा हुआ सुन्दर और सुरक्षित नगर था। इस संघ में अस्सी हजार कुल और पांच लाख जन थे। इनकी राजसभा, शाक्य परिषद के 500 सदस्य थे। ये सभा प्रशासन और न्याय दोनों कार्य करती थी। सभाभवन को सन्यागार कहते थे। यहां विशेषज्ञ एवं विशिष्ट जन विचार-विमर्श कर कोई निर्णय देते थे। शाक्य परिषद का अध्यक्ष राजा कहलाता था। भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोदन शाक्य क्षत्रिय राजा थे। कौसल के राजा प्रसेनजित के पुत्र विडक्घभ ने इस गणराज्य पर आक्रमण कर इसे नष्ट कर दिया था।
लिच्छवि - लिच्छवि गणराज्य गंगा के उत्तर में (वर्तमान उत्तरी बिहार क्षेत्र) स्थित था। इसकी राजधानी का नाम वैशाली था। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बसाढ़ ग्राम में इसके अवशेष प्राप्त होते हैं। लिच्छवि क्षत्रिय वर्ण के थे। वर्द्धमान महावीर का जन्म इसी गणराज्य में हुआ था। इस गणराज्य का वर्णन जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में प्रमुख रूप से मिलता है। वैशाली की राज्य परिषद में 7707 सदस्य होते थे। इसी से इसकी विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। शासन कार्य के लिए दो समितियां होती थीं। पहली नौ सदस्यों की समिति वैदेशिक सम्बन्धों की देखभाल करती थी। दूसरी आठ सदस्यों की समिति प्रशासन का संचालन करती थी। इसे इष्टकुल कहा जाता था। इस व्यवस्था में तीन प्रकार के विशेषज्ञ होते थे- विनिश्चय महामात्र, व्यावहारिक और सूत्राधार।
लिच्छवि गणराज्य तत्कालीन समय का बहुत शक्तिशाली राज्य था। बार-बार इस पर अनेक आक्रमण हुए। अन्तत: मगधराज अजातशत्रु ने इस पर आक्रमण करके इसे नष्ट कर दिया। परंतु चतुर्थ शताब्दी ई. में यह पुन: एक शक्तिशाली गणराज्य बन गया।
वज्जि - लिच्छवि, विदेह, कुण्डग्राम के ज्ञातृक गण तथा अन्य पांच छोटे गणराज्यों ने मिलकर जो संघ बनाया उसी को वज्जि संघ कहा जाता था। मगध के शासक निरन्तर इस पर आक्रमण करते रहे। अन्त में यह संघ मगध के अधीन हो गया।
अम्बष्ठ - पंजाब में स्थित इस गणराज्य ने सिकन्दर से युद्ध न करके संधि कर ली थी।
अग्रेय - वर्तमान अग्रवाल जाति का विकास इसी गणराज्य से हुआ है। इस गणराज्य में सिकंदर की सेनाओं का डटकर मुकाबला किया। जब उन्हें लगा कि वे युद्ध में जीत हासिल नहीं कर पायेंगे तब उन्होंने स्वयं अपनी नगरी को जला लिया।
इनके अलावा अरिष्ट, औटुम्वर, कठ, कुणिन्द, क्षुद्रक, पातानप्रस्थ इत्यादि गणराज्यों का उल्लेख भी प्राचीन गंथों में मिलता है।
लोकतंत्र की अवधारणा
प्रत्येक राज्य चाहे वह उदारवादी हो या समाजवादी या साम्यवादी, यहां तक कि सेना के जनरल द्वारा शासित पाकिस्तान का अधिनायकवादी भी अपने को लोकतांत्रिक कहता है। सच पूछा जाए तो आज के युग में लोकतांत्रिक होने को दावा करना एक फैशन सा हो गया है।
लोकतंत्र की पूर्णतः सही और सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। क्रैन्स्टन ने ठीक ही कहा है कि लोकतंत्र के संबंध में अलग-अलग धारणाएं है। लिण्सेट की परिभाषा अधिक व्यापक प्रतीत होती हैं उसके अनुसार, “लोकतंत्र एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली है जो पदाधिकारियों को बदल देने के नियमित सांविधानिक अवसर प्रदान करती है और एक ऐसे रचनातंत्र का प्रावधान करती है जिसके तहत जनसंख्या का एक विशाल हिस्सा राजनीतिक प्रभार प्राप्त करने के इच्छुक प्रतियोगियों में से मनोनुकूल चयन कर महत्त्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावित करती है।” मैक्फर्सन ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए इसे ‘एक मात्र ऐसा रचनातंत्र माना है जिसमें सरकारों को चयनित और प्राधिकृत किया जाता है अथवा किसी अन्य रूप में कानून बनाए और निर्णय लिए जाते हैं।‘ शूप्टर के अनुसार, ‘लोकतांत्रिक विधि राजनीतिक निर्णय लेने हेतु ऐसी संस्थागत व्यवस्था है जो जनता की सामान्य इच्छा को क्रियान्वित करने हेतु तत्पर लोगों को चयनित कर सामान्य हित को साधने का कार्य करती है। वास्तव में, लोकतंत्र मूलतः नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सहभागी राजनीति से संबद्ध प्रणाली है। लोकतंत्र की अवधारणा के संबंध में प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैंः
1. लोकतंत्र का पुरातन उदारवादी सिद्धान्त
2. लोकतंत्र का अभिजनवादी सिद्धान्त
3. लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त
4. प्रतिभागी लोकतंत्र का सिद्धान्त
5. लोकतंत्र का मार्क्सवादी सिद्धान्त अथवा जनता का लोकतंत्र
लोकतंत्र का पुरातन उदारवादी सिद्धान्त
लोकतंत्र की उदारवादी परंपरा में स्वतंत्रता ,
समानता , अधिकार, धर्म निरपेक्षता और न्याय जैसी अवधारणाओं का प्रमुख स्थान रहा है और उदारवादी चिंतक आरंभ से ही इन अवधारणाओं को मूर्त रूप देने वाली सर्वोत्तम प्रणाली के रूप में लोकतंत्र की वकालत करते रहे हैं। नृपतियों और सामंती प्रभुओं से मुक्ति के बाद समाज के शासन-संचालन की दृष्टि से लोकतंत्र को स्वाभाविक राजनीतिक प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया। मैक्फर्सन का कहना है कि पाश्चात्य जगत में लोकतंत्र के आगमन के पहले ही चयन की राजनीति, प्रतियोगी राज्य व्यवस्था और मार्किट की राज्यव्यवस्था जैसी अवधारणाएं विकसित हो चुकी थीं। हकीकत में इस अर्थ में उदार राज्य का ही लोकतंत्रीकरण हो गया, न कि लोकतंत्र का उदारीकरण। लोकतांत्रिक भावना के आंरभिक चिह्न टॉमसमूर (यूटोपिया, 1616) और विंस्टैनले जैसे अंग्रेज विचारकों और अंग्रेज अतिविशुद्धतावाद (प्यूरिटैनिजन्म) के साहित्य में पाया जा सकता है, किन्तु लोकतांत्रिक भावना की सही शुरुआत सामाजिक संविदा के सिद्धान्त के जन्म के साथ हुई, क्योंकि नागरिकों के सामाजिक अनुबंध की अन्तर्निहित भावना ही सभी व्यक्तियों की समानता है। थॉमस हॉब्स ने अपनी पुस्तक ‘लेवियाथन‘ (1651) में प्रमुख लोकतांत्रिक सिद्धान्त की वकालत करते हुए लिखा कि सरकार का निर्माण जनता द्वारा एक सामाजिक संविदा के तहत होता है। जॉन लॉक का कहना था कि सरकार जनता के द्वारा और उसी के हित के लिए होनी चाहिए। एडम स्मिथ ने मुक्त बाजार का प्रतिमान इस लोकतांत्रिक आधार पर ही प्रस्तुत किया कि प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन करने, खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता है। प्रसिद्ध उपयोगितावादी दार्शनिक मिल और बेंथम ने पूरी तरह लोकतंत्र का समर्थन किया और उपयोगितावाद के माध्यम से इसे प्रभावी बौद्धिक आधार प्रदान किया। उनके अनुसार, लोकतंत्र उपयोगितावाद अर्थात् अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को अधिकतम संरक्षण प्रदान करता है, क्योंकि लोग अपने शासकों से तथा एक दूसरे से संरक्षण की अपेक्षा रखते हैं और इस संरक्षण को सुनिश्चित करने के सर्वोत्तम तरीके हैं, प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र, संवैधानिक सरकार, नियमित चुनाव, गुप्त मतदान, प्रतियोगी दलीय राजनीति और बहुमत के द्वारा शासन। जे. एस. मिल ने बेंथम द्वारा लोकतंत्र के पक्ष में प्रस्तुत तर्क में एक और बिन्दु जोड़ते हुए कहा कि लोकतंत्र किसी भी अन्य शासन-प्रणाली की तुलना में मानवजाति के नैतिक विकास में सर्वाधिक योगदान करता है। उसकी दृष्टि में लोकतंत्र नैतिक आत्मोत्थान और वैयक्तिक क्षमताओं के विकास एवं विस्तार का सर्वोच्च माध्यम है। इस संबंध में यह उल्लेख्य है कि बेंथम और मिल दोनों में कोई भी सार्वभौम
वयस्क मताधिकार अथवा एक व्यक्ति एक मत के पक्षधर नहीं थे। 1802 तक बेंथम ने सीमित मताधिकार की वकालत की और 1809 में सिर्फ संपन्न वर्गों के गृहस्वामियों के लिए सीमित मताधिकार का नारा दिया और अंततोगत्वा 1817 में सार्वभौम मताधिकार का आह्वान किया, लेकिन इस अधिकार को मर्दों तक ही सीमित रखा। इसी प्रकार मिल भी सार्वभौम वयस्क मताधिकार के पक्ष में नही था, क्योंकि उसे आशंका थी कि एक वर्ग के लोग बहुसंख्यक होने की स्थिति अपना प्रभुत्व कायम कर सकते है और अन्य वर्गों के हित के विरुद्ध सिर्फ अपने हित के नियम-कानून बना सकते हैं। आगे चलकर उसने अपनी पुस्तक ‘रिप्रेजेंटेंटिव गवर्नमेंट‘ (प्रतिनिधिमूलक सरकार, 1816) में उसने कुछ लोगों के लिए एक से अधिक मतदान की वकालत की लेकिन खैरात पाने वाले अकिंचनों, निरक्षरों, दिवालियों, कर नहीं चुकाने वालों को, अर्थात् उन सभी लोगों को जो संयुक्त रूप से श्रमिक वर्ग का निर्माण करते हैं, इससे वंचित रखा। वह सिर्फ एक ऐसी प्रतिनिधिमूलक सरकार का हिमायती था जो आधारभूत समानताओं में दखलअंदाजी नही करती और मुक्त बाजार और हस्तक्षेप की नीति अपना कर चलती है। बाद के उदारवादी विचारक लोकतंत्र का समर्थन करते रहे और पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका ने इसकी स्वीकार्यता को और आगे बढ़ाने का काम किया।
लोकतंत्रके संबंध में पुरातन उदारवादी मत को समय-समय पर अनेक विचारकों द्वारा चुनौतियां मिलती रही हैं। प्रथमतः, लोकतंत्र की इस मान्यता पर प्रश्न खड़े किए गए हैं कि प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि उसके लिए सर्वोत्तम क्या है। लॉर्ड ब्राइस, ग्राहम वाल्स इत्यादि विचारक मानते हैं कि मनुष्य उतना विवेकशील, तटस्थ, जानकार अथवा सक्रिय नहीं है जितना कि प्रजातंत्र के संचालन के लिए उसे मान लिया जाता है। द्वितीयतः, लोकतंत्र जनता के शासन की आधारशिला पर टिका होता है, किन्तु यह स्पष्टतः बतलाना आसान नहीं है कि ‘शासन‘ और ‘जनता‘ के बिल्कुल सही अर्थ क्या है। इसलिए सरकार के आधार के रूप में लोकमत एक मिथक है। तृतीयतः लोकतंत्र से अपेक्षा की जाती है कि वह सामान्य हित का काम करेगा, लेकिन सामान्य हित जैसी कोई चीज नहीं भी हो सकती है। किसी भी समाज में सामान्य हित विभिन्न लोगों के लिए विभिन्न अर्थ रख सकता है। चतुर्थतः, पुरातन उदारवादी सिद्धान्त समूह मनोविज्ञान, सामूहिक उत्पीड़न और प्रत्यायन तथा जनोत्तेजक नेतृत्व जैसे कारकों की उपेक्षा कर देता है। पंचमतः, लोकतंत्र में दलीय प्रणाली प्रायः अभिजात्य वर्ग का खेल बन जाती है अथवा उनके द्वारा नियंत्रित होती है जो साधन संपन्न है और वे ही महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेते हैं। फिर, नीति-निर्धारण की प्रक्रिया भी काफी जटिल है। उदारवादियों ने अनावश्यक रूप से इसे सरल, पारदर्शी और न्यायसंगत मान लिया है। और सबसे बड़ी त्रुटि इस सिद्धान्त में यह है कि यह राजनीतिक समानता किन्तु आर्थिक विषमता पर आधारित है।
लोकतंत्र का अभिजनवादी सिद्धान्त
बीसवीं सदी में राजनीतिक विचारकों ने प्रश्न उठाना शुरू किया कि क्या जनसाधारण प्रतिदिन के जीवन में राजनीति में कोई भूमिका निभा सकते हैं? क्या सामान्य नागारिक, जो अपने जीविकोपार्जन में लगे रहते हैं, राजनीतिक भूमिका निभाने के लिए समय और शक्ति लगा सकते हैं? क्या जनसमूह बिना किसी प्रतिबंध के चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से अपनी भावनाओं का खुला प्रदर्शन करता है तो स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी? इन प्रश्नों के उत्तर में ही लोकतंत्र के अभिजनवादी और बहुलवादी सिद्धान्त विकसित हुए हैं।
अभिजन (एलीट) पद का प्रयोग किसी समूह के ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग के लिए होता है जो कुछ कारकों की वजह से समुदाय में विशिष्ट हैसियत रखते हैं। यह अल्पसंख्यक वर्ग समाज में सत्ता के वितरण में अग्रणी भूमिका में होता है। राजनीतिक श्रेष्ठीवर्ग, प्रेस्थस के अनुसार, सामुदायिक मामलों में अपने संख्या-बल के अनुपात में कहीं ज्यादा सत्ता का उपभोग करता है।
प्रजातंत्र के सबंध में अभिजन सिद्धान्त का अभ्युदय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ इस सिद्धान्त के प्रवर्त्तकों में विल्फ्रेडो पैरेटो, ग्रेटानोमोस्का, रॉबर्ट मिशेल्स और अमेरिकी लेखक जेम्स बर्नहाम तथा सी. राइट मिल्स प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त का मुख्य आधार यह मान्यता है कि समाज में दो तरह के लोग होते हैं- गिने चुने विशिष्ट लेग और विशाल जनसमूह। विशिष्ट लोग हमेशा शिखर तक पहुँचते हैं क्योंकि वे सारी अर्हताओं से सम्पन्न सर्वोत्तम लोग होते हैं। अभिजन वर्ग विशेष रूप से राजनीतिक अभिजन वर्ग, सारे राजनीतिक कृत्यों का निष्पादन करता है, सत्ता पर एकाधिकार कर लेता है और सत्ता से जुड़े सारे लाभ उठाता है। बहुसंख्यक समूह अभिजन वर्ग द्वारा मनमाने ढंग से नियंत्रित और निर्देशित होता है। संगठित अल्पसंख्यक ही हमेशा असंगठित जनसमूह को शासित और निर्देशित करता है। रॉबर्ट मिशेल्स ने ‘अल्पतंत्र के लौह कानून‘ जैसी उक्ति का प्रयोग करते हुए कहा है कि सामान्य वर्गों को अभिजन वर्ग की अधीनता स्वीकार करनी ही चाहिए क्योंकि जनसंख्या का एक विशाल भाग उदासीन कर्मण्य और स्व-शासन में अक्षम होता है। लोकतंत्र के अभिजन सिद्धान्त की मुख्य विशेषताए हैं :
(1) लोग समान रूप से योग्य नहीं होते, अतः अभिजन और गैर-अभिजन का निर्माण अपरिहार्य है,
(2) अपनी उच्चतर योग्यताओं के बल पर अभिजनवर्ग सत्ता-नियंत्रक एवं प्रभविष्णु बन जाता है,
(3) अभिजनवर्ग अनवरत एक जैसा नहीं रहता। इस वर्ग में नए लोग शामिल होते हैं और पुराने लोग बाहर हो जाते है,
(4) बहुसंख्यक जनसमुदाय, जो गैर-अभिजनवर्ग का निर्मायक है, में अधिकांश भावशून्य, आलसी और उदासीन होते हैं, इसलिए एक ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग का होना आवश्यक है जो नेतृत्व प्रदान करे और
(5) आज के युग में शासक अभिजनवर्ग में मुख्य रूप से बुद्धिजीवी, औद्योगिक प्रबंधक और नौकरशाह होते हैं।
लोकतंत्र के अभिजन सिद्धान्त का सुव्यवस्थित प्रतिपादन सर्वप्रथम जोसेफ शुंप्टर ने अपनी पुस्तक ‘कैपिटलिज्म, सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसी‘ (पूंजीवाद, समाजवाद और लोकतंत्र, 1942) में किया। बाद में सार्टोरी, रॉबर्ट डाल, इक्सटाईन, रेमंड अरोन, कार्ल मैन हियुमंड, सिडनी वर्बा आदि ने अपनी रचनाओं में इस मत का समर्थन किया। लोकतंत्र की यह अवधारणा इस मान्यता पर आधारित है कि जनसंख्या का विशाल भाग अक्षम और तटस्थ होता है और वह योग्यता और क्षमता के आधार पर कुछ लोगों का चुनाव करता है जो राजनीतिक दल का नियंत्रित और संचालित करते हैं। बहुसंख्यक लोग जीविका कमाने में व्यस्त रहते हैं। उन्हें राजनीतिक मामलों में न तो अभिरूचि होती है, न समझ। इसलिए वे अभिजनवर्ग से कुछ लोगों का चयन कर लेते हैं और उनके अनुयायी बन जाते हैं। अभिजन सिद्धान्त के अनुसार आज के जटिल समाज में कार्यक्षमता के लिए विशेषज्ञता आवश्यक है और विशेषज्ञों की संख्या हमेशा कम ही होती है। अतः राजनैतिक नेतृत्व ऐसे चुनिंदा सक्षम लोगों के हाथ में होना आवश्यक है। यह सिद्धान्त लोगो की अतिसहभागिता को भी खतरनाक मानता है, क्योंकि तानाशाही प्रवृत्ति का हिटलर जैसा कोई ताकतवर नेता सत्ता प्राप्त करने के लिए जनसमूह को लामबंद कर लोकतंत्र को ही खत्म कर दे सकता है जिसका सीधा अर्थ है मौलिक स्वतंत्रताओं का अंत। इसलिए उनका दावा है कि लोकतांत्रिक और उदारवादी मूल्यों को बचाए रखने के लिए जनसमूह को राजनीति से अलग रखना जरूरी है। अभिजन सिद्धान्त के अनुसार आम जनता के द्वारा वास्तविक शासन हो ही नहीं सकता। शासन हमेशा जनता के लिए होता है, जनता के द्वारा कभी नही, क्योंकि जनता जिन्हें प्रतिनिधि चुनती है वे अभिजनवर्ग के ही होते हैं। दूसरे शब्दों में लोकतंत्र का अर्थ है अभिजन वर्गां के बीच प्रतिद्वन्द्विता और जनता द्वारा यह निर्णय कि कौनसा अभिजन ऊपर शासन करेगा। इस प्रकार, लोकतंत्र मात्र एक ऐसी कार्यप्रणाली है जिसके द्वारा छोटे समूहों में से एक जनता के न्युनतकम अतिरिक्त समर्थन से शासन करता हैं अभिजनवादी सिद्धान्त यह भी मानता है कि अभिजन वर्गों- राजनीतिक दलों, नेताओं, बड़े व्यापारी घरानों के कार्यपालकों, स्वैच्छिक संगठनों के नेताओं और यहां तक कि श्रमिक संगठनों के बीच मतैक्य आवश्यक है ताकि लोकतंत्र की आधारभूत कार्यप्रणाली को गैर जिम्मदार नेताओं से बचाया जा सके। इससे यह स्पष्ट होता है कि बाह्य तौर पर तो अभिजन वर्ग सिद्धान्त लोकतंत्र के विचार को अधिक व्यवहारवादी और आनुभविक बनाने का दावा करती है, लेकिन अंततः यह लोकतंत्र को एक ऐसे रूढ़िवादी राजनीतिक सिद्धान्त में बदल देता है जो उदारवादी अथवा नव-उदारवादी यथास्थितिवाद से संतुष्ट हो जाता है और इसके स्थायित्व को बनाए रखना चाहता है।
अभिजनवाद की कई विचारकों ने आलोचना की है जिनमें सी. बी. मैक्फर्सन, ग्रीम डंकन, बैरी होल्डन, रॉबर्ट डाल आदि प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त के विरुद्ध मुख्य आपत्तियां निम्नलिखित हैं:
(1) अभिजनवाद लोकतंत्र का अर्थ ही विकृत कर देता है और इसकी आधारभूत विशेषताओं की उपेक्षा कर इसे स्वेच्छाचारी बना देता है। यदि जनता का काम प्रतिनिधियों को चुनना भर ही है तो शासन संचालन में उनके पास बोलने-कहने को अधिकार नहीं रह जाता और ऐसी स्थिति में प्रणाली अलोकतांत्रिक बन जाती है।
(2) यह सिद्धान्त लोकतंत्र की परंपरागत पुरातन अवधारणा के नैतिक उद्देश्य को समाप्त कर देता है पुरातन अवधारणा के अनुसार लोकतंत्र का लक्ष्य मानवजाति का उन्नयन है, लेकिन अभिजन सिद्धान्त इस नैतिक पक्ष की अवहेलना कर देता है और पूरी स्थिति अल्पसंख्यक अभिजनवर्ग के शासन की निष्क्रिय स्वीकृति हो जाती है।
(3) अभिजन सिद्धान्त सहभागिता, जो लोकतांत्रिक शासन का केन्द्रीय तत्त्व है, का महत्त्व घटा देता है और दावा करता है कि सहभागिता संभव है ही नहीं। इस तरह जनता द्वारा शासन असंभव हो जाता है।
(4) अभिजन सिद्धान्त एक सामान्य व्यक्ति को राजनीतिक दृष्टि से अक्षम और निष्क्रिय रूप में चित्रित करता है, एक ऐसा व्यक्ति जो अपना जीवन-निर्वाह करता है, शाम में अपने परिवार या मित्रों के बीच अथवा मीडिया के साधनों के उपयोग में अपना समय बिताता है और श्रेष्ठी समूहों में से किसी एक को समय-समय पर चुनने के अतिरिक्त कुछ नही करता।
(5) अभिजन सिद्धान्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा मौलिक परिवर्तन लाने के बदले प्रणाली के स्थायित्व बनाए रखने पर ही विशेष बल देता है। उसका मुख्य उद्देश्य लोकतांत्रिक प्रणाली को कायम रखना है। वह सामाजिक आन्दोलन को लोकतंत्र के लिए खतरा और अभिजनवर्ग द्वारा व्यवस्थित कानूनी प्रक्रिया का विघटनकारी मानता है।
लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त
लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त भी जन सामान्य के बदले समूहों की भूमिका पर बल देता है। कुछ विचारकों ने लोकतंत्र संबंधी ऐसे सिद्धान्तों का निरूपण किया है जो अभिजन सिद्धान्त और बहुलवादी सिद्धान्त का मिश्रण है। लेकिन यह भी सही है कि बहुलवादी सिद्धान्त की उत्पत्ति अभिजन सिद्धान्त की आंशिक प्रतिक्रिया के रूप में हुई है। अभिजन सिद्धान्त एक ऐसी स्थिति के निर्माण से संतुष्ट है जिसमें सत्ता ऐसे अभिजनवर्ग में निहित होती है जो महत्त्वपूर्ण निर्णय लेता है, लेकिन बहुलवादी एक ऐसी प्रणाली पर जोर देता है जो उदारवादी लोकतंत्र में अभिजनवाद की प्रवृत्ति को निष्प्रभावी कर देगा और सही जनाकांक्षा को प्रकट करेगा।
बहुलवाद की अवधारणा वैसे तो पुरानी है, किन्तु बीसवीं सदी में आधुनिक उदारवादी चिंतन का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया। सामान्य अर्थ में बहुलवाद सत्ता को समाज में एक छोटे से समूह तक सीमित करने के बदले उसे प्रसारित और विकेन्द्रीकृत कर देता है। आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिक काल में, बहुलवादियों के अनुसार, सत्ता विखंडित हो गई है और इसमें प्रतियोगी सार्वजनिक और निजी समूहों की साझेदारी बढ़ गई है। उच्च स्थानों पर आसीन लोगों के पास पूर्व की भांति सत्ता नहीं रह गई है, क्योंकि वे मुख्य रूप से परस्पर विरोधी स्वार्थों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने लगे। विभिन्न समूह अपने नेतृत्व के माध्यम से मध्यस्थता करते हैं और इसके जरिए व्यक्ति का भी प्रतिनिधित्व हो जाता है। यद्यपि औद्योगिक और प्रौद्योगिक एकीकरण और प्रौद्योगिक अभियाचनाओं के कारण सत्ता कुछ ही व्यक्तियों में केन्द्रित हो गई है लेकिन अल्पसंख्यक किन्तु वृहत्तर, हित-समूहों के बीच प्रतियोगिता सार्वजनिक हित के पक्ष में जाती है। बड़े व्यापारी घरानों, श्रम और सरकार के बीच प्रतियोगिता ने प्रत्येक समूह को अपनी सत्ता का दुरुपयोग करने पर लगाम कसी है। इस प्रकार, नागरिकों के बीच संपत्ति, शिक्षा और सत्ता में असमानता को निम्न प्रभावित कर दिया जाता है क्योंकि संगठन और समूह आशा से अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करते है और इससे लोकतंत्र अधिक वास्तविक बनता है और इस अर्थ में अधिक व्यवहार्य भी सिद्ध होता है। भारत का ही उदाहरण लें। यहां महेन्द्र सिंह टिकैत का किसान संगठन और नर्मदा बचाओ आन्दोलन ऐसे जन आन्दोलन हैं जो लाखों गरीब और अशिक्षित लोगों की आवाज़ बन जाते हैं। और लोकतंत्र को निश्चय ही अधिक वास्तविक बनाते हैं। यह सही है कि अभिजनवर्ग और उनके समाचार मीडिया उनकी आलोचना करते हैं और उन्हें प्रगति का बाधक बताते हैं और यदा कदा सर्वोच्च न्यायालय भी उन्हें अपने आन्दोलनों को रोक देने के लिए बाध्य करता है, किन्तु इस सब के बावजूद ऐसे जनान्दोलन भारतीय लोकतंत्र को अधिक सार्थक और प्रतिनिधिमूलक बनाते हैं। लोकतंत्र की बहुवादी अवधारणा का विकास मुख्य रूप से अमेरिका में हुआ। इसके प्रणेताओं में एस. एम. लिण्सेट, रॉबर्ट डाल, वी. प्रेस्थस, एफ. हंटर आदि प्रमुख हैं। उनका तर्क है कि राजनीतिक सत्ता उतनी सरल नहीं है जितनी दिखाई पड़ती है, यह विभिन्न समूहों, संगठनों, वर्गों और संघों समेत अभिजन वर्ग जो आमतौर पर समाज को नेतृत्व प्रदान करता है के बीच बंटी हुई है। विभिन्न स्वार्थ समूह अपनी मांगों को सीधे तौर पर तो प्रस्तुत करते ही हैं, विभिन्न राजनीतिक दलों के माध्यम से भी पेश करते हैं। बहुलवादी लोकतंत्र की एक परिभाषा इस प्रकार दी गई है। यह एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली है जिसमें नीतियां विभिन्न समूहों के बीच पारस्परिक परामर्श और विचारों के आदान प्रदान के द्वारा निर्धारित की जाती है क्योंकि कोई भी समूह या अभिजनवर्ग इतना सशक्त नही है कि वह अकेले सरकार पर इतना दबाब डाल सके कि वह उसकी सारी माँगों को पूरा कर सके।
बहुलवादी सत्ता की इस साझेदारी का अनुमोदन करते हैं कि इससे लाभ यह होता है कि कोई भी सामाजिक समूह सरकार की नीति- निर्धारण की प्रक्रिया पर इस कदर हावी नहीं हो पाता कि वह अन्य वर्गों के हितों की अनदेखी कर सके। लेकिन, बहुलवादी सिद्धान्तकारों की एक मान्यता यह भी थी कि सभी नागरिकों को राजनीतिक क्षेत्र में अपने हितों को संघटित करने और उन्हें साधने के लिए वैधानिक अवसर और आर्थिक संसाधन प्राप्त हैं। इस अवसर के बगैर नागारिक किसी प्रस्तावित कदम का समर्थन या विरोध नहीं कर सकते। बहुलवादी विचारक राजनीति को व्यक्तियों के बदले समूहों के बीच निश्चयों की प्रक्रिया मानते हैं और घोषणा करते हैं कि लोकतंत्र सर्वोत्तम तरीके से तभी काम करता है जब नागरिक अपने विशेष हितों के समर्थक समूह से जुड़ जाते हैं। वे इस बात पर विशेष बल देते हैं कि किसी समाज में व्यक्तियों की सक्रिय सहभागिता होनी चाहिए और अपने संकल्प को क्रियान्वित करने के लिए विभिन्न समूहों से जुड़ जाना चाहिए। साथ ही, सारे समूहों और उनके सदस्यों को यह स्वीकार करना चाहिए कि चुनाव राजनीतिक निर्णयों में विशाल समुदाय की सहभागिता का एक कारगर हथियार है। इसी तरह, अभिजन वर्ग के सारे समूह और सदस्य पारस्परिक प्रतियोगिता के द्वारा लोकतंत्र को संभव बनाते हैं। इससे स्पष्ट है कि बहुलवादी सिद्धान्त वास्तव में अभिजनवाद का पूर्णतः विरोध नहीं करता क्योंकि इसके प्रवर्तकों के अनुसार अभिजनवर्ग का अस्तित्व एक हकीकत है और वे उसकी अवस्थिति से संतुष्ट है। यही कारण है कि बहुलवादी सिद्धान्तों कभी-कभार अभिजनवर्ग सिद्धान्तों से आंशिक रूप में ही भिन्न समझा जाता है। महान अमेरिकी राजनीतिक विचारक रॉबर्ट डाल लोकतंत्र की अभिजनवादी और बहुलवादी अभिधारणाओं को संयुक्त करते हुए अपनी लोकतांत्रिक अभिधारणा को बहुतंत्र की संज्ञा देता है। उसके अनुसार, जनता समूहों और अभिजनवर्ग के राजनीतिज्ञों दोनों के माध्यम से सक्रिय होती है। उसने अनेक ऐसे समुदायों का हवाला दिया है जो सरकार के नीति-निर्धारण को प्रभावित करते हैं- जैसे, व्यापारी घराने और उद्योगपति, सौदागर, श्रमिक संगठन, किसान संगठन, उपभोक्ता, मतदाता इत्यादि। ऐसा नहीं है कि उनकी पूरी कार्यसूची क्रियान्वित हो ही जाती है। सारे समूह समान रूप से सशक्त नहीं होते और अनेक समूह अपनी मनोनुकूलनीतियों को मनवाने की अपेक्षा प्रतिकूलनीतियों की रोकथाम में ज्यादा प्रभावी होते हैं।
बहुलवादी सिंद्धान्त के विरुद्ध उठाई जाने वाली आपत्तियों में निम्नलिखित प्रमुख हैंः
(१) बहुलवादी सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि अलग-अलग समूहों के बीच हितों के टकराव के फलस्वरूप उन हितों अथवा उनके अंश को प्रोत्साहन मिलता है जो स्वीकार किए जाने के योग्य होते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि इस टकराव के कारण यथास्थिति अथवा गत्यावरोध के हालात बन जाते हैं। कभी-कभी तो और बदतर स्थिति हो जाती है जब एक समूह-विशेष अपनी संपूर्ण कार्य सूची को मनवा लेता है जिसके फलस्वरूप अन्य समूह आक्रोशित हो उठते हैं।
(२) बहुलवादी सिद्धान्त का सूत्र-वाक्य है कि लोग अपने हितों की सीधे तौर पर पूर्ति चाहते हैं। लेकिन यह सर्वथा और सर्वदा सत्य नहीं होता। लोग राष्ट्रवादी अथवा अन्य अभिप्रेरणाओं से भी संचालित हो सकते हैं।
(३) माइकल मावगोलिस के अनुसार बहुलवादी सिद्धान्त समाज के संसाधनों को संवर्द्धित या पुनर्वितरित करने के तरीके खोजने में अक्षम है। नतीजतन, निम्नजातियों, महिलाओं, आदिवासियों तथा परंपरागत रूप से समाज के अन्य वंचित तबकों को साधन संपन्न वर्गों की भांति राजनीति में सहभागिता के समान अवसर नहीं मिल पाते।
(४) मावगोलिस का यह भी कहना है कि बहुलवादियों के पास यथोचित आर्थिक और पर्यावरणीय मूल्य पर सामाजिक समानता और विकास की कोई योजना नहीं है।
लोकतंत्र का सहभागिता सिद्धान्त
राजनीति क्रियाकलाप में सहभागिता लोकतंत्र का मूल तत्त्व है, लेकिन खासकर पूंजीवादी लोकतंत्रों में यह प्रायः चुनावों में मतदान तक ही सीमित रहता है। लोकतंत्र का सहभागिता सिद्धान्त संवर्द्धित भागीदारी को एक आदर्श भी मानता है और कृत्यात्मक आवश्यकता भी। इस सिद्धान्त के प्रमुख प्रस्तावकों में 1960 के दशक से कैरोल पेर्लमैन, सी. बी. मैक्फर्सन और एन. पॉलैन्ट जास जैसे वामपंथी विचारक प्रमुख रहे हैं। सहभागी लोकतंत्र की दो प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैंः
(1) निर्णय लेने की प्रक्रिया का इस रूप में विकेन्द्रीकरण कि उन निर्णयों से प्रभावित होने वाले लोगों तक नीति निर्धारण किया जा सके।
(2) नीति-निर्धारण में सामान्यजन की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी। सहभागिता सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार लोकतंत्र वास्तविक अर्थ प्रत्येक व्यक्ति की समान सहभागिता है, न कि मात्र सरकार को स्थायी बनाए रखना जैसा कि अभिजनवादी अथवा बहुलवादी सिद्धान्तकार मान लेते हैं। सच्चे लोकतंत्र का निर्माण तभी हो सकता है जब नागरिक राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय हों और सामूहिक समस्याओं में निरंतर अभिरूचि लेते रहें। सक्रिय सहभागिता इस लिए आवश्यक है ताकि समाज की प्रमुख संस्थाओं के पर्याप्त विनिमय हों और राजनीतिक दलों में अधिक खुलापन और उत्तरदायित्व के भाव हों।
सहभागी लोकतंत्र के सिद्धान्तकारों के अनुसार यदि नीतिगत निर्णय लेने का जिम्मा केवल अभिजन वर्ग तक सीमित रहता है तो उसके लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप बाधित होता है। इसलिए वे इसमें आम आदमी की सहभागिता की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि यदि लोकतांत्रिक अधिकार कागज के पन्नों अथवा संविधान के अनुच्छेदों तक ही सीमित रहे तो उन अधिकारों का कोई अर्थ नहीं रह जाता, अतः सामान्य लोगों द्वारा उन अधिकारों का वास्तविक उपभोग किया जाना आवश्यक है। लेकिन यह उपभोग भी तभी संभव है जबकि व्यक्ति स्वतंत्र और समान हो। यदि लोगों का विश्वास हो कि नीतिगत निर्णयों में कारगर सहभागिता के अवसर वास्तव में विद्यमान न हैं तो वे निश्चय ही सहभागी बनेंगे। ऐसी स्थिति में वे प्रभावी ढंग से साझेदारी भी कर सकेंगे। जिस लोकतंत्र में, चाहे वह राजनीतिक हो या प्राविधिक या शिल्पतांत्रिक अभिजनवर्ग का वर्चस्व होता है वह नागरिकों के लिए संतोषप्रद नही होता और आमलोग सहभागिता के द्वारा ही उस वर्ग के वर्चस्व को समाप्त कर सकते हैं। सहभागिता सिद्धान्त के समर्थकों का यह भी कहना है कि आज के औद्योगिक और प्रौद्योगिक समाजों में शिक्षा का स्तर ऊँचा हो गया है और बौद्धिक तथा राजनैतिक चेतना से संपन्न समाज में अभिजन और गैर-अभिजन के बीच की खाई कम हुई है। इसलिए कार्यक्षमता और विकास की दृष्टि से अधिकांश मामलों में सामान्य लोगों की सहभागिता कोई बाधा नहीं रह गई है। सच पूछा जाए तो सत्ता का विकीर्णन ही अत्याचार के विरुद्ध सबसे मजबूत सुरक्षा-कवच है। सहभागिता पर आधारित लोकतंत्र ही नागरिकों को तटस्थता, अज्ञान और अलगाव से बचा सकता है और लोकतंत्र की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकता है।
प्रश्न है, आम नागरिक की राजनीतिक सहभागिता कैसे हो ? इसके सिद्धान्तकारों ने इसके निम्नलिखित तरीके बताए हैंः
1. चुनावों में मतदान
2. राजनीतिक दलों की सदस्यता
3. चुनावों मे अभियान कार्य
4. राजनीतिक दलों की गतिविधियों में शिरकत
5. संघों, स्वैच्छिक संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों जैसे दबाव तथा लॉबिंग समूहों की सदस्यता और सक्रिय साझेदारी
6. प्रदर्शनों में उपस्थिति
7. औद्योगिक हड़तालों में शिरकत (विशेषकर जिनके उद्देश्य राजनीतिक हों अथवा जो सार्वजनिक नीति को बदलने अथवा प्रभावित करने को अभिप्रेत हों)
8. सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भागीदारी, यथा- कर चुकाने से इन्कार इत्यादि
9. उपभोक्ता परिषद् की सदस्यता
10. सामाजिक नीतियों के क्रियान्वयन में सहभागिता
11. महिलाओं और बच्चों के विकास, परिवार नियोजन , पर्यावरण संरक्षण , इत्यादि सामुदायिक विकास के कार्यों में भागीदारी, इत्यादि।
मैक्फर्सन की टिप्पणी है कि आज के राष्ट्र क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से विशालकाय हैं और यह संभव नहीं है कि सारे नागरिक रोजमर्रे के राजनीतिक विमर्श या नीति निर्धारण में शामिल हों, फिर भी यदि कुछ शर्तो को स्वीकार कर लिया जाए तो सहभागिता का अनुपात निश्चित रूप से बढ़ाया जा सकता ह। ये शर्ते हैंः
(1) यदि राजनीतिक दल “प्रत्यक्ष लोकतंत्र” के सिद्धान्त के अनुसार लोकतांत्रिक हो,
(2) यदि राजनीतिक दल सच्चे अर्थ में संसदीय ढाँचे के अन्तर्गत कार्य करते हों, और
(3) यदि राजनीतिक दल के क्रिया कलाप श्रमिक संगठनों, स्वैच्छिक संस्थाओं तथा ऐसे ही अन्य निकायों से संपूरित होते हों।
डेविड हेल्ड ने सहभागिता सिद्धान्त पर आपत्ति उठाते हुए कहा कि यह पुरातन/अभिजन बहुलवादी जैसे सिद्धान्तों से बेहतर तो है, लेकिन इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि कैसे और क्यों सिर्फ सहभागिता मानवीय विकास, जो लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है, के उच्चतर स्तर को प्राप्त कर सकेगी। इस बात का कोई साक्ष्य अथवा तर्क संगत आधार नहीं मिलता कि सहभागिता नागरिकों को सामान्य हित के प्रति अधिक सहयोगशील और प्रतिबद्ध बनाएगी। हेल्ड इस केन्द्रीय मान्यता को भी आवश्यक रूप से सत्य नहीं मानता कि आम लोग अपने जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर नीति निर्धारण करने और निर्णय लेने में अधिक उत्तरदायी बनना चाहते हैं। यदि वे सामाजिक-आर्थिक मामलों और नीतियों के निर्धारण में भाग लेना नहीं चाहें तो उन्हें इसके लिए बाध्य करना उचित नहीं माना जा सकता। फिर भी मान लिया जाए कि आम लोग अपने लोकतांत्रिक रुझान को यदि एक सीमा से आगे ले जाना चाहें और बुनियादी स्वतंत्रता और अधिकार के मामले में दखलंदाजी करने लगे तो लोकतंत्र का क्या हश्र होगा, ऐसे प्रश्नों पर सहभागिता सिद्धान्त के समर्थकों ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। कुक और मॉर्गन के अनुसार सहभागी लोकतंत्र को असली जामा पहनाना उतना आसान नहीं है जितना ऊपरी तौर पर प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ, सहभागी इकाई के सम्यक् आकार और कृत्य क्या हों फिर, नागरिकों की सक्रिय सहभागिता के बल पर स्थानीय स्तरों पर लिए गए निर्णयों को संपूर्ण राष्ट्र के हित के साथ किस प्रकार समन्वित एवं समेकित किया जाएगा? एक स्थानीय सहभागी इकाई के नीतिगत मामले दूसरी इकाई के विरोधी भी तो हो सकते हैं। फिर एक बात यह भी है कि अधिकतम संभव सहभागिता के बल पर लिए गए निर्णय आवश्यक नहीं कि सर्वाधिक कारगर निर्णय हों ही। सहभागिता सिद्धान्त के समर्थक कार्यक्षमता एवं प्रभाव के मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते।
लोकतंत्र का मार्क्सवादी सिद्धान्त
आम धारणा के विपरीत लोकतंत्र के विचार को
मार्क्स और पश्चवर्ती मार्क्सवादी विचारकों ने भी स्वीकार कर लिया है। इतना अवश्य है कि उनकी लोकतंत्र-संबधी अभिधारणा पाश्चात्य उदारवादी लोकतांत्रिक अभिधारणाओं से पूर्णतः भिन्न है। चूंकि मार्क्सवादियों का मानना है कि पूंजीवादी व्यवस्था में लोकतांत्रिक अधिकार सही अर्थ में आम जनता के पास न होकर सिर्फ साधन-संपन्न वर्ग के हाथ में होता है, इसलिए वे एक ऐसे लोकतंत्र की स्थापना चाहते हैं जो ‘जनता का लोकतंत्र‘ (पीपल्स डेमोक्रेसी) हो। मार्क्सवादी लोकतंत्र में उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व को खत्म करने और सर्वहारावर्ग द्वारा अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के पश्चात् समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना होती है।
मार्क्स उदारवादी संवैधानिक लोकतंत्र का आलोचक था क्योंकि उसके अनुसार पूंजीवादी लोकतंत्र का आधार एक ऐसी आर्थिक प्रणाली होती है जिसमें उत्पादन के साधन हमेशा पूंजीपति वर्ग के नियंत्रण में होते हैं। यही पूंजीपति वर्ग अपनी धन-शक्ति के बल पर राजनीतिक व्यवस्था की नियंत्रण में रखकर सरकार और राज्य-तंत्र को अपने अधीन रखता है। राज्य सत्ता, अधिकार और विशेषाधिकार पूर्णतः उसी वर्ग के पास होते हैं और श्रमिकवर्ग के पास सिर्फ नाम की स्वतंत्रता और अधिकार होते हैं। राज्य का अधिकारी वर्ग, न्यायालय और पुलिस बल भी तटस्थ न होकर प्रभुतासम्पन्न वर्ग के ही हित साधक होते हैं। इसलिए, लोकतंत्र एक ऐसी शासन-प्रणाली का रूप अख्तियार कर लेता है जो शासक वर्ग की सत्ता और विशेषाधिकार को बढ़ावा देने और उच्च वर्ग के हितों को साधने के काम आता है।
इसके बावजूद, मार्क्स और एंगेल्स ने यह स्वीकार किया है कि संपन्न पूंजीपति वर्ग द्वरा नियंत्रित उदारवादी बुर्जुआ लोकतंत्र भी किसी हद तक अपने नागरिकों को वास्तविक अधिकार देने के ऐतिहासिक दावे कर सकता है और श्रमिक वर्ग इसका इस्तेमाल अपने को संगठित कर सर्वहारा की क्रांति के लिए कर सकते हैं। उदारवादी लोकतंत्रों में आम मताधिकार का उपयोग सर्वहारावर्ग की क्रांतिकारी आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने में किया जा सकता है। मार्क्सवादी यह अवश्य मानते हैं कि कुछ स्थितियों में हिंसक क्रांतिकारी आन्दोलन की आवश्यकता नहीं हो सकती है लेकिन ऐसी स्थितियों की संभावना अत्यल्प है। अगर समाजवादी क्रांति के लक्ष्य को पूरा करने के लिए संसदीय मार्ग अपनाया भी जाता है तो यह अन्य प्रकार के संघर्षों में एक अतिरिक्त सहायक उपकरण ही हो सकता है।
मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार वास्तविक लोकतंत्र सर्वहारा के अधिनायकवाद को कायम करने के लिए सर्वहारावर्ग की क्रांति के पश्चात ही संभव है क्योंकि उदारवादी बुजुआर् लोकतंत्र का आदर्श प्रतिभागिता का हो सकता है, लेकिन यथार्थ में साधनहीन श्रमिक वर्ग की सहभागिता उसमें नहीं हो पाती। अपनी रचना ‘द क्रिटिक ऑफ द गोथा प्रोग्राम‘ (गोथा कार्यक्रम की समीक्षा- 1875) में मार्क्स और एंगेल्स ने अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा था ‘पूंजीवादी और साम्यवादी समाज के बीच में ही एक का दूसरे में रूपांतरण की अवधि निहित होती है। इसी से मेल खाती एक राजनीतिक संक्रमण की अवधि भी होती है जिसमें राज्य सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद और साम्यवाद में भेद किया है। वे इसे एक मध्यवर्ती काल मानते हैं। इसकी परिणति साम्यवादी समाज की स्थापना में होती है। यह समझना जरूरी है कि कार्ल मार्क्स और एंगेंल्स ने अधिनायकवाद पद का प्रयोग किस अर्थ में किया है। उनकी दृष्टि में प्रत्येक राज्य शासक सामाजिक वर्ग का अधिनायकवाद रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था में यह वर्ग संपन्न औद्योगिक और व्यापारी बुर्जुआ का था जबकि उनकी अपनी अवधारणा वाला राज्य क्रांति के तुरंत बाद सर्वहारा के नियंत्रण वाला राज्य होगा और तब समाजवादी पुननिर्माण की प्रक्रिया शुरू होगी जिसका अंत एक वर्गहीन समाज की स्थापना में होगा। इसलिए, उनकी दृष्टि में लोकतंत्र और सर्वहारा अधिनायकवाद एक ही साथ चलेंगे, ठीक वैसे ही जैसे कि पूंजीवादी व्यवस्था में उदारवादी लोकतंत्र व्यवहार्यतः लोकतंत्र भी और उद्योगपतियों एवं व्यापारिक घरानों के बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकवादी शासक भी। इसीलिए, मार्क्स और एंगेल्स का कहना था कि क्रांति और श्रमिक वर्ग के आधिपत्य के पश्चात् की प्रणाली ‘जनता के लोकतंत्र‘ की प्रणाली होगी। जनता से उनका तात्पर्य मुठ्ठीभर संपन्न बुर्जुआ के स्थान पर जनसामान्य की विशाल आबादी से था। मार्क्स द्वारा प्रतिपादित ‘जनता का लोकतंत्र‘ की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैंः
(1) जनता का लोकतंत्र तत्त्वतः एक ऐसा लोकतंत्र है जिसमें श्रमिक वर्ग का एक विशाल भाग राजनैतिक एवं नीतिगत निर्णय के अधिकार अल्पसंख्यक अभिजनवर्ग से अपने हाथ में ले लेता है। इस तरह, राजकीय एवं आर्थिक व्यवस्था के अधिकार अल्पसंख्यक उद्योगपतियों और व्यापारिक घरानों के पास नहीं रह जाते।
(2) जनता के लोकतंत्र में उत्पादन के साधनों - भूमि, कल कारखानें इत्यादि पर जनता का स्वामित्व होता है, राज्य सारी उत्पादक पूंजीगत परिसंपत्त्यिं को अपने नियंत्रण में ले लेता है और उत्पादन-क्षमता में दु्रतगति से वृद्धि होती है। इसमें प्रत्येक नागरिक के लिए नियोजन के समान अवसर होते हैं।
(3) समाजवादी लोकतंत्र में कार्यकारी और विधायी कृत्यों का समेकीकरण हो जाता है और क्रांति के पश्चात् सारे कार्मिक सीधे तौर पर चुने जाते हैं तथा पुलिस और सैन्य बल का स्थान नागरिक सेना ले लेती है। सारे सरकारी सेवक श्रमिक के रूप में समान वेतन पाते हैं।
(4) सामाजिक स्तर पर विरासत का चलन समाप्त हो जाता है, सभी बच्चे निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते हैं, गांवों और शहरों के बीच आबादी का न्यायसंगत वितरण होता है और सभी नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादक शक्तियों के संवर्धन के लिए पुरजोर कोशिश की जाती है।
(5) मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार जनता का लोकतंत्र पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की स्थिति है। व्यक्तिगत संपत्ति और वर्गों के उन्मूलन के पश्चात् जब समाजवादी समाज का निर्माण हो जाता है तो वह क्रमशः पूर्ण साम्यवाद की ओर अग्रसर होने लगता है। पूर्ण साम्यवाद की अवस्था में राज्य व्यवस्था का अंत हो जाता है और उसके स्थान पर वास्तविक अर्थ में एक प्रकार का स्व-शासन कायम हो जाता है।
समाजवादी समाजों की रचना ने मार्क्सवादी विचारों को और आगे बढ़ाया, लेनिन जिसने रूस में 1917 में प्रथम समाजवादी राज्य की स्थापना की ने मार्क्सवादी चिंतन की नई व्याख्याएं प्रस्तुत की। उसने सर्वहारा के अधिनायकवाद को स्वीकार किया और समाजवादी क्रांति के इसके महत्त्व पर बल दिया, लेकिन उसने इसके साथ यह भी जोड़ दिया कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद विशाल सर्वहारा संगठन या साम्यवादी दल द्वारा ही प्रयोग में लाया जा सकता है। उसने लोकतंत्र की तीन अवस्थाएं बताईः पूंजीवादी लोकतंत्र, समाजवादी लोकतंत्र और साम्यवादी लोकतंत्र। उसके अनुसार लोकतंत्र राज्य का एक स्वरूप है और वर्ग-विभाजित समाज में सरकार अधिनायकवादी और लोकतांत्रिक दोनों होती है। यह एक वर्ग के लिए लोकतंत्र है तो दूसरे के लिए अधिनायकवाद। बुर्जुआ वर्ग चुंकि अपने हित साधन में पूंजीवादी प्रणाली को नियंत्रित और संचालित करता है, इसलिए उसे सत्ता से बेदखलकर समाजवादी लोकतंत्र को स्थापित करना आवश्यक है। लेनिन स्वीकार करता है कि नव स्थापित समाजवादी राज्य उतना ही दमनात्मक होता है जितना कि पूंजीवादी राज्य। सर्वहारा वर्ग के शासन को लागु करने के लिए यह आवश्यक भी है। चूंकि बुर्जुआ काफी शक्तिशाली होता है, इसलिए समाजवादी लोकतंत्र के आरंभिक दौर में सर्वहारा वर्ग के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह बलपूर्वक पूंजीवादी वर्ग का उन्मूलन कर दे। सर्वहारा के अधिनायकवाद के समक्ष दो लक्ष्य होते हैंः
(१) क्रांति को बचाना, और
(२) एक नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को संघटित करना
लेनिन के अनुसार यह कार्य मुख्य रूप से साम्यवादी दल को करना पड़ता है।
इस तरह, लेनिन की दृष्टि में पूंजीवादी लोकतंत्र में सच्चा लोकतंत्र नहीं होता, जबकि सर्वहारा के अधिानायकवाद में पूर्वापेक्ष अधिक लोकतंत्र होता है, क्योंकि यह बहुसंख्यक सर्वहारा वर्ग का शासन है। उसका यह भी दावा था कि अन्ततः सच्चे साम्यवाद की प्राप्ति के साथ लोकतंत्र अनावश्यक हो जाएगा, क्योंकि उस समाज के सन्दर्भ में इसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के बाद अनेक विचारकों ने मार्क्सवाद की अनेक व्याख्याएं प्रस्तुत की है। इनमें एडवर्ड बर्नस्टाइन, कार्ल कॉट्स्की, रोजा लुक्जमवर्ग आदि प्रमुख हैं। एडवर्ड बर्नस्टाइन का दावा है कि पूंजीवाद की मार्क्सवादी व्याख्या गलत है और सर्वहारा का अधिनायकवाद न तो आवश्यक है, न वांछनीय। उसके अनुसार, राजनीतिक लोकतंत्र और उदारवादी स्वतंत्रताएं अधिक महत्त्वपूर्ण है। लेनिन की यह मान्यता सही नहीं है कि सर्वहारा का अधिनायकवाद आवश्यक है। बर्नस्टाइन का तर्क है कि जब तक सर्वहारा वर्ग बहुमत हासिल नहीं कर लेता, समाजवादी क्रांति असंभव है और यदि वह बहुमत हासिल कर लेता है तो अधिनायकवाद की जरूरत ही नहीं रहती। उसके अनुसार लोकतंत्र आवश्यक है और मार्क्सवादी समाजवादी सिद्धान्त के साथ लोकतांत्रिक परंपरा को जोड़कर ही समाजवाद की स्थापना हो सकती है। मार्क्सवादी क्रांतिकारी रोजा लक्जमबर्ग ने लेनिन की लोकतंत्र- विरोधी नीति के संबंध में आपत्ति उठाते हुए कहा है कि इससे विशाल जनसमुदाय का अधिनायकवाद नहीं, विशाल जनसमुदाय पर अधिनायकवाद स्थापित हो जाता है।
लोकतंत्र की आवश्यकता
• बहुसंख्यक जनसमुदाय, जो गैर-अभिजनवर्ग का निर्मायक है, में अधिकांश भावशून्य, आलसी और उदासीन होते हैं, इसलिए एक ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग का होना आवश्यक है जो नेतृत्व प्रदान करे।
• अभिजन सिद्धान्त के अनुसार आज के जटिल समाज में कार्यक्षमता के लिए विशेषज्ञता आवश्यक है और विशेषज्ञों की संख्या हमेशा कम ही होती है। अतः राजनैतिक नेतृत्व ऐसे चुनिंदा सक्षम लोगों के हाथ में होना आवश्यक है।
• लोकतंत्र मात्र एक ऐसी कार्यप्रणाली है जिसके द्वारा छोटे समूहों में से एक जनता के न्युनतकम अतिरिक्त समर्थन से शासन करता हैं अभिजनवादी सिद्धान्त यह भी मानता है कि अभिजन वर्गों- राजनीतिक दलों, नेताओं, बड़े व्यापारी घरानों के कार्यपालकों, स्वैच्छिक संगठनों के नेताओं और यहां तक कि श्रमिक संगठनों के बीच मतैक्य आवश्यक है ताकि लोकतंत्र की आधारभूत कार्यप्रणाली को गैर जिम्मदार नेताओं से बचाया जा सके।
• सहभागिता सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार लोकतंत्र वास्तविक अर्थ प्रत्येक व्यक्ति की समान सहभागिता है, न कि मात्र सरकार को स्थायी बनाए रखना जैसा कि अभिजनवादी अथवा बहुलवादी सिद्धान्तकार मान लेते हैं। सच्चे लोकतंत्र का निर्माण तभी हो सकता है जब नागरिक राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय हों और सामूहिक समस्याओं में निरंतर अभिरूचि लेते रहें। सक्रिय सहभागिता इस लिए आवश्यक है ताकि समाज की प्रमुख संस्थाओं के पर्याप्त विनिमय हों और राजनीतिक दलों में अधिक खुलापन और उत्तरदायित्व के भाव हों।
• सहभागी लोकतंत्र के सिद्धान्तकारों के अनुसार यदि नीतिगत निर्णय लेने का जिम्मा केवल अभिजन वर्ग तक सीमित रहता है तो उसके लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप बाधित होता है। इसलिए वे इसमें आम आदमी की सहभागिता की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि यदि लोकतांत्रिक अधिकार कागज के पन्नों अथवा संविधान के अनुच्छेदों तक ही सीमित रहे तो उन अधिकारों का कोई अर्थ नहीं रह जाता, अतः सामान्य लोगों द्वारा उन अधिकारों का वास्तविक उपभोग किया जाना आवश्यक है।
• लोकतंत्र राज्य का एक स्वरूप है और वर्ग-विभाजित समाज में सरकार अधिनायकवादी और लोकतांत्रिक दोनों होती है। यह एक वर्ग के लिए लोकतंत्र है तो दूसरे के लिए अधिनायकवाद। बुर्जुआ वर्ग चुंकि अपने हित साधन में पूंजीवादी प्रणाली को नियंत्रित और संचालित करता है, इसलिए उसे सत्ता से बेदखलकर समाजवादी लोकतंत्र को स्थापित करना आवश्यक है।
इन्हें भी देखें
आधुनिक लोकतंत्र
सहभागी लोकतंत्र (participatory democracy)
राजतन्त्र
गणराज्य
महाजनपद
बाहरी कड़ियाँ
लोकतंत्र पर वंशवाद हावी
भारत में लोकतन्त्र : एक विश्लेषणात्मक विवेचन
Democracy in Ancient India by Steve Muhlberger, Associate Professor of History, Nipissing University
संसदीय लोकतंत्र को परिष्कृत करना ही एक मात्र विकल्प
विश्व लोकतंत्र रचना
१००० वर्ष पूर्व के प्रजातंत्र का संविधान
Democracy of a high standard - ancient example (The Hindu)
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गोपनीयता • डेस्कटॉप लोकतंत्र

Saturday 2 December 2017

भारत में शिक्षा के उद्देश्यों का महत्व


भारत में शिक्षा के उद्देश्यों का महत्व

परिचय

जब से मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ है तभी से भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा है | यह सब भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार है कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी जीवित है | वर्तमान युग में भी महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्रियों इसी बात का प्रयास कर रहे हैं की शिक्षा भारत में प्रत्येक युग की शिक्षा के उद्देश्य अलग-अलग रहें हैं इसलिए वर्तमान भारत जैसे जनतंत्रीय देश के लिए उचित उद्देश्यों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रकाश डालने से पूर्व हमें अतीत की ओर जाना होगा | निम्नलिखित पंक्तियों में हम प्राचीन, मध्य तथा वर्तमान तीनो युगों की भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रकाश डाल रहे हैं –
(1) पवित्रता तथा जीवन की सद्भावना – प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक जीवन की भावनाओं को विकसित करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य था | शिक्षा आरम्भ होने से पूर्व प्रत्येक बालक के उपनयन संस्कार की पूर्ति करना शिक्षा प्राप्त करते समय अनके प्रकार के व्रत धारण करना, प्रात: तथा सायंकाल ईश्वर की महिमा के गुणगान करना तथा गुरु के कुल में रहते हुए धार्मिक त्योहारों का मानना आदि सभी बातें बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक भावनाओं को विकसित करते उसे आध्यात्मिक दृष्टि से बलवान बनाती है | इस प्रकार साहित्यिक तथा व्यवसायिक सभी प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य बालक को समाज का एक पवित्र तथा लाभप्रद सदस्य बनाना था |
(2) चरित्र निर्माण – भारत की प्राचीन शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था – बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना | उस युग में भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है | मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो | अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना उस युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता था | इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे | कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था |
(3) व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण विकसित करना प्राचीन शिक्षा का तीसर उद्देश्य था | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालक को आत्म-सम्मान की भावना को विकसित करना परम आवश्यक समझा जाता था | अत: प्रत्येक बालक में इस माहान गुण को विकसित करने के लिए आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता, आत्म-नियंत्रण तथा विवेक एवं निर्णय आदि अनके गुणों एवं शक्तियों को पूर्णत: विकसित करने का अथक प्रयास किया जाता था |
(4) नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास- भारत की प्राचीन शिक्षा का चौथा उद्देश्य था – नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस बात पर बल दिया जाता था कि मनुष्य समाजोपयोगी बने, स्वार्थी नहीं | अत: बालक को माता-पिता, पुत्र तथा पत्नी के अतिरिक्त देश अथवा समाज के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन करना सिखाया जाता था | कहने का तात्पर्य यह है कि तत्कालीन शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती थी जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज की उन्नति में भी यथाशक्ति योगदान दें सकें |
(5) सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति – सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति करना प्राचीन शिक्षा का पांचवां उद्देश्य था- इस उद्देश्य की प्राप्ति भावी पीढ़ी को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं व्यवसायों तथा उधोगों में प्रशिक्षण देकर की जाती थी | तत्कालीन समाज में कार्य-विभाजन का सिधान्त प्रचलित था | इसी कारण ब्राह्मण तथा क्षत्रिय राजा भी हुए और लड़का भी एवं शुद्र दर्शानिक भी | परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी सामान्य व्यक्ति के लिए यही उचित था कि वह अपने परिवार के व्यवसाय को ही अपनाये | इससे प्रत्येक व्यवसाय की कुशलता में वृद्धि हुई | परिणामस्वरूप सामाजिक कुशलता एवं सुख की निरन्तर उन्नति होती रही |
(6) संस्कृति का संरक्षण तथा विस्तार – राष्ट्रीय सम्पति तथा संस्कृति का संरक्षण एवं विस्तार भारत की प्राचीन शिक्षा का छठा महत्वपूर्ण उद्देश्य था | प्राचीन काल में हिन्दुओं ने अपने विचार तथा संस्कृति के प्रचार हेतु शिक्षा को उत्तम साधन माना | अत: प्रत्येक हिन्दू अपने बालकों को वही शिक्षा देता था, जो उसने स्वयं प्राप्त की थी | यह प्राचीन आचार्यों के घोर परिश्रम का ही तो फल है की हमारा वैदिक कालीन सम्पूर्ण साहित्य हमारे सामने आज भी ज्यों का त्यों सुरक्षति है | डॉ ए० ऐसी० अल्तेकर ने ठीक ही लिखा है – “ हमारे पूर्वजों ने प्राचीन युग के साहित्य की विभिन्न शाखाओं के ज्ञान को सुरक्षित ही नहीं रखा अपितु अपने यथाशक्ति योगदान द्वारा उसमें निरन्तर वृद्धि करके उसे मध्य युग तक भावी पीढ़ी को हस्तांतरित किया |”
प्राचीन युग की शिक्षा के उपर्युक्त उद्देश्यों पर प्रकाश डालने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर आते हैं की हमारी तत्कालीन शिक्षा-पद्धति ऐसी थी जसमें भारतीय जीवन तथा बालक के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक आदि सभी प्रकार के विकास का व्यापक दृष्टिकोण निहित था |

मध्य युग में भारतीय शिक्षा के उद्देश्य

भारत के मध्य युग की शिक्षा का अर्थ इस्लामी अथवा मुस्लिम शिक्षा से है | मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित है –
(1) इस्लाम का प्रसार- इस्लामी शिक्षा का पहला उद्देश्य मुस्लमान धर्म का प्रसार करना था | अत: जगह-जगह मकतब और मदरसे खोले गये | प्रत्येक मस्जिद के साथ एक मकतब खोला जाता था जिसमें मुस्लिम बालकों को कुरान पढाया जाता था | साथ ही मदरसों में इस्लाम का इतिहास, दर्शन, तथा उच्च प्रकार की धर्म संबंधी शिक्षा प्रदान की जाती थी |
(2) मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार – मुस्लिम शिक्षाशास्त्रियों का विश्वास था कि शिक्षा के ही द्वारा मुसलमानों को धार्मिक तथा अधार्मिक बातों का अन्तर समझाया जा सकता है | अत: मुसलमानों को शिक्षा प्रदान करना इस्लामी शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था |
(3) इस्लामी राज्यों में वृद्धिकरण – इस्लामी शिक्षा का तीसरा इस्लामी राज्यों में वृद्धि करना था | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए मुसलमानों को लड़ने की कला सिखाई जाती थी जिससे वे इस्लामी राज्यों में वृद्धि कर सकें |
(4) नैतिकता का विकास – इस्लामी शिक्षा का चौथा उद्देश्य नैतिकता का विकास करना था | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लये मुस्लिम बालकों को नैतिक पुस्तकों का अध्ययन कराया जाता था |
(5) भौतिक सुखों को प्राप्त करना – इस्लामी शिक्षा का पांचवां उद्देश्य भौतिक सुखों को प्राप्त करना था | इसके लिए बालकों को उपाधियाँ तथा मौलवियों को ऊँचे-ऊँचे पड़ दिये जाते थे जिससे वे भौतिक सुखों का आनन्द ले सकें |
(6) शरियत का प्रसार – इस्लामी शिक्षा का छठा उदेहय शरियत के कानूनों को लागू करना था | अत: शिक्षा द्वारा इस्लाम के कानून, राजनीतिक सिधान्त तथा इस्लाम की सामाजिक परम्पराओं का प्रसार किया गया |
(7) चरित्र निर्माण – मोहम्मद साहब का विश्वास था कि केवल चरित्रवान व्यक्ति ही उन्नति कर सकता है | अत: इस्लामी शिक्षा का सातवाँ उद्देश्य मुस्लमान बालकों के चरित्र का निर्माण करना था |

वर्तमान भारत में शिक्षा के उचित उद्देश्यों का निर्माण

भारत हजारों वर्षों तक दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा | इसलिए न हमारी शिक्षा भारतीय संस्कृति पर ही आधारित रही और न ही हमारी शिक्षा का कोई राष्ट्रीय उद्देश्य रह सका | 15 अगस्त सन 1947 को हमारे यहाँ विदेशी नियंत्रण समाप्त हुआ | उसी दिन से भारत एक सर्वसत्ता लोकतंत्रात्मक गणराज्य है | ध्यान देने की बात है कि जनतंत्र की बागडोर उन नागरिकों के हाथ में होती है जो आज के स्कूलों में पढ़ रहे हैं | दुसरे शब्दों में, जनतंत्र की आत्मा शिक्षा होती है | अत: हमारी जनतंत्रीय सरकार, शिक्षाशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा समाज सुधारकों ने शिक्षा को भारतीय संस्कृति पर आधारित करने तथा नये जनतांत्रिक समाज को सफल बनाने के लिए, शिक्षा के उचित उद्देश्यों के निर्माण की आवश्यकता अनुभव की | अत: भारत सरकार ने – (1) विश्वविधालय शिक्षा आयोग (2) माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा (3) कोठारी आयोग की नियुक्ति की | इन आयोगों ने समाज तथा व्यक्ति की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए भारतीय शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों को निर्धारित किया है –
(अ) विश्वविद्यालय  आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
विश्वविद्यालय आयोग ने भारतीय शिक्षा के अगलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं –
(1) विवेक का विस्तार करना |
(2) नये ज्ञान के लिए इच्छा जागृत करना |
(3) जीवन का अर्थ समझने के लिए प्रयत्न करना |
(4) व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था करना |
(ब) माध्यमिक आयोग के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने व्यक्ति तथा भारतीय समाज की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए शिक्षा के निम्नलखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं -
जनतांत्रिक नागरिकता का विकास- भारत एक धर्म निरपेक्ष गणराज्य है | इस देश के जनतंत्र को सफल बनाने के लिए प्रत्येक बालक को सच्चा, ईमानदार तथा कर्मठ नागिरक बनाना परम आवश्यक है | अत: शिक्षा का परम उद्देश्य बालक को जनतांत्रिक नागरिकता की शिक्षा देना है | इसके लिए बालकों को स्वतंत्र तथा स्पष्ट रूप से चिन्तन करने एवं निर्णय लेने को योग्यता का विकास परम आवश्यक है, जिससे वे नागरिक के रूप में देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं पर स्वतंत्रतापूर्वक चिन्तन और मनन करके अपना निजी निर्माण लेते हुए स्पष्ट विचार व्यक्त कर सकें | इन सभी शक्तियों का विकास बौद्धिक विकास के द्वारा किया जा सकता है | बौद्धिक विकास की हो जाने से व्यक्ति इस योग्य बन जाता है कि वह सत्य और असत्य तथा वास्तविकता और प्रचार से अन्तर समझते हुए अंधविश्वासों तथा निरर्थक परम्पराओं का उचित विश्लेषण करके अपने जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं के विषय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण द्वारा अपना निजी निर्णय ले सके | चूँकि स्पष्ट चिन्तन का भाषण देने तथा लेखन की स्पष्टता से घनिष्ठ सम्बन्ध है इसलिए बालकों को शिक्षा के द्वारा इस योग्य बनाया जाये कि वे भाषणों तथा लेखों के द्वारा अपने विचारों से जनता को प्रभावित करके अपनी ओर आकर्षित कर सकें |
कुशल जीवन-यापन कला की दीक्षा – शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालक को समाज में रहने अथवा जीवन-यापन की कला में दीक्षित करना है | एकांत में रहकर न तो व्यक्ति जीवन-यापन की कर सकता है और न ही पूर्णत: विकसित हो सकता है | उसके स्वयं के विकास तथा समाज के कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि वह सहअस्तित्व की आवश्यकता को समझते हुए व्यवहारिक अनुभवों द्वारा सहयोग के महत्व का मुल्यांकन करना सीखे | इस दृष्टि में चेतना तथा अनुशासन एवं देशभक्ति आदि अनेक सामाजिक गुणों का विकास किया जाना चाहिये जिससे प्रत्येक बालक इस विशाल देश के विभिन्न व्यक्तियों का आदर करते हुए एक-दुसरे के साथ घुलमिल कर रहना सीख जायें |
व्यवसायिक कुशलता की उन्नति – शिक्षा का तीसरा उद्देश्य बालकों में व्यवसायिक कुशलता की उन्नति करना है | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लये व्यासायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता है | अत: बालकों के मन में श्रम के प्रति आदर तथा रूचि उत्पन्न करना एवं हस्तकला के कार्य पर बल देना परम आवश्यक है | यही नहीं, पाठ्यक्रम में विभिन्न व्यवसायों को भी उचित स्थान मिलना चाहिये जिससे प्रत्येक बालक अपनी रूचि के अनुसार उस व्यवसायों को चुन सकें जिसे शिक्षा समाप्त करने के पश्चात अपनाना चाहता हो | इससे हमें जहाँ एक ओर विभिन्न व्यवसायों के लिए कुशल कारीगर प्राप्त हों सकेंगे वहाँ दूसरी ओर औधोगिक परगति के कारण देश की आर्थिक दशा में भी निरन्तर सुधार होता रहेगा | इस दृष्टि से स्कूलों में व्यवसायिक क्षमता की उन्नति की ओर ध्यान देते हुए बालकों को इस बात का ज्ञान करना परम आवश्यक है कि आत्म सन्तुष्टि तथा राष्ट्रीय समृद्धि कार्य-कुशलता द्वारा सम्भव है |
व्यक्तित्व का विकास – शिक्षा का चौथा उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना है | व्यक्ति के विकास का तात्पर्य बालक के बौद्धिक विकास, शारीरिक, सामाजिक तथा व्यवसायिक आदि सभी पक्षों एवं रचनात्मक शिक्तियों के विकास से है | इस उद्देश्य के अनुसार बालकों को क्रियात्मक तथा रचनात्मक कार्यों को करने के लिए प्रेरित करना चाहिये जिससे उनमें साहित्यिक, कलात्मक एवं सांस्कृतिक आदि नाना प्रकार की रुचियों का निर्माण हो जाये | इस विभिन्न रुचियों के विकास से उनकी आत्माभिव्यक्ति, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सम्पति की वृद्धि, अवकाश काल के सदुपयोग की योग्यता तथा चहुंमुखी विकास में सहायता मिलेगी | अत: बालकों के व्यक्तित्व के विकास हेतु उन्हें रचनात्मक कार्यों में भाग लेने के अवसर मिलने चाहियें |
नेतृत्व के लिए शिक्षा – भारत को अब ऐसे नेताओं की आवश्यकता है जो देश को आदर्श नेतृत्व प्रदान कर सके | अत: नेतृत्व की शिक्षा प्रदान करना शिक्षा का पांचवा मुख्य उद्देश्य है | इस उद्देश्य के अनुसार हमें बालकों में अनुशासन, सहनशीलता, त्याग, सामाजिक भावनाओं की समझदारी तथा नागरिक एवं व्यावहारिक कुशलता आदि गुणों को विकसित करना चाहिये जिससे वे बड़े होकर राजनितिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में अपने-अपने उतरदायित्व को सफलतापूर्वक निभाते हुए सफल नेतृत्व कर सकें |
(स) कोठारी आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
कोठारी कमीशन ने भारतीय शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं  -
(1) उत्पादन में वृद्धि करना – वर्त्तमान जनतंत्रीय भारत का प्रथम उद्देश्य है – उत्पादन में वृद्धि करना | भारत में जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन नहीं बढ़ रहा है | हम देखते हैं कि हमारे देश खाद्य सामग्री, वस्त्र दवाइयां तथा कल-पुर्जे आदि आवश्यक वस्तुयों की अब भी बहुत कमी है | इन सबके लिए हमें दुसरे देशों का मुहं देखना पड़ता है | हमें चाहिये कि हम अपने यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादन को गति-प्रदान करें | इस महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमें कृषि तथा तकनीकी शिक्षा पर बल देने के साथ-साथ माध्यमिक शिक्षा को भी अधिक व्यवसायिक रूप प्रदान करना होगा | इस सम्बन्ध में आयोग ने कुछ कैसे सुझाव भी प्रस्तुत किये है जिनको कार्य रूप में परिणत करने से उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है |
(2) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास – राष्ट्र के पुननिर्माण के लिए राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है | इस एकता के न होने से सभी नागरिक राष्ट्र हित की परवाह न करते हुए केवल अपने-अपने निजी हितों को पूरा करने में ही व्यस्त हो जाते हैं इससे राष्ट्र निर्बल तथा प्रभावहीन हो जाता है | परिणामस्वरूप उसे एक दिन रसातल में जाना ही पड़ता है | कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्र के निर्माण हेतु सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है | इस एकता की भावना का विकास केवल शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है | अत: शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास होना चाहिये | आयोग ने एक शैक्षिक कार्यक्रम की रुपरेखा प्रस्तुत की है जिसके द्वारा इस उद्देश्य को सफलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है |
(3) जनतंत्र के सुद्रढ़ बनाना- जनतंत्र को सफल बनाने के लिए शिक्षा परम आवश्यक है | अत: जनतंत्र को सुद्रढ़ बनाना शिक्षा का तीसरा उद्देश्य है | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से करनी चाहिये कि प्रत्येक व्यक्ति जनतंत्र के आदर्शों और मूल्यों को प्राप्त कर सके | आयोग ने शिक्षा के द्वारा जनतंत्र सुद्रढ़ बनाने तथा राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने के लिए कुछ ठोस सुझाव प्रस्तुत किये हैं जो उक्त दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है |
(4) देश का आधुनिकीकरण करना – शिक्षा का चौथा उद्देश्य है – देश का आधुनिकीकरण करना | प्राग्तिशील देशों में वैज्ञनिक तथा तकनीकी ज्ञान में विकास होने के कारण दिन-प्रतिदिन नये-नये अनुसंधान हो रहे हैं | इन अनुसंधानों के परिणामस्वरूप प्राचीन परम्पराओं, मान्यताओं तथा दृष्टिकोण में परिवर्तन हो रहे हैं | इन परिवर्तनों के कारण नव-समाज का निर्माण हो रहा है | खेद का विषय है कि भारतीय समाज में अभी तक वही परम्पराओं, मान्यताओं तथा दृष्टिकोण प्रचलित है जिन्हें प्राचीन युग में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था | भारत अब स्वतंत्र है | यदि भारत को अब उन्नतिशील राष्ट्रों के साथ-साथ चलना है तो हमें भी वैज्ञानिक  तथा तकीनीकी ज्ञान का विकास करके औधोगिक क्षेत्र में उन्नति करते हुए अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं, मान्यताओं एवं दृष्टिकोण में समयानुकूल परिवर्तन करके देश का आधुनिकीकरण करना होगा | चूँकि ये सभी बातें शिक्षा के ही द्वारा सम्भव हैं, इसलिए हमें शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से करनी चाहिये की यह उद्देश्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाये |
(5) सामाजिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना – शिक्षा का पाँचवां उद्देश्य है – सामाजिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों को विकास करना | देश का आधुनिकीकरण करने के लिए कुशल व्यक्तियों का होना परम आवश्यक है | अत: हमको पाठ्यक्रम में विज्ञान तथा तकीनीकी विषयों को मुख्य स्थान देना होगा | इन विषयों से चारित्रिक विकास एवं मानवीय गुणों को क्षति पहुँचने की सम्भावना है | अत: आयोग ने सुझाव प्रस्तुत किया है कि पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक विषयों के साथ-साथ मानवीय विषयों को भी सम्मिलित किया जाये जिससे औधोगिक उन्नति के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी विकसित होते रहें और प्रत्येक नागरिक सामाजिक, नैतिकता तथा अध्यात्मिक मूल्यों को प्राप्त कर सकें | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए भी आयोग ने अनेक सुझाव प्रस्तुत किये हैं |

Aim of Education


शिक्षा का उद्देश्य
शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थियों के अंदर अच्छे संस्कार पैदा करना तथा उन्हें आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाना है। स्कूल में दाखिला लेने के बाद एक विद्यार्थी अपने स्कूल की पुस्तकों से, शिक्षकों से, स्कूल के वातावरण तथा सहपाठियों से बहुत कुछ सीखता है।
शिक्षा का उद्देश्य दूसरों पर विचार थोपना या मतारोपण करना नहीं है और न ही शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को किसी प्रकार का आदेश देना है। शिक्षा का लक्ष्य किसी प्रकार का कष्ट अथवा दण्ड भी नहीं होना चाहिए। जब शिक्षा दण्ड बन जाती है तो छात्रों में अनुशासनहीनता पैदा होती है, जिसके फलस्वरूप छात्र आन्दोलन तथा हडतालें आदि करते हैं।
शिक्षा का उद्देश्य केवल किताबी कीड़े पैदा करना नहीं बल्कि देश के लिए भावी नागरिकों को श्रेष्ठ तथा स्वास्थ बनाना है। ऐसे ही नागरिक आगे चलकर हमारे राष्ट को उनन्त एवं समृद्ध बना सकते हैं।
वास्तविक शिक्षा वही है जो व्यक्ति को सभी प्रकार के अंधकारों और बंधनों से मुक्त करती है। इस प्रकार का लक्ष्य मनुष्य को अज्ञान-अंधकार तथा बंधनों से मुक्त कराना है।
वास्तविक शिक्षा वही है जो व्यक्ति को भी सभी प्रकार के अंधकारों और बंधनों सें मुक्त करती है। इस प्रकार शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य को अज्ञान-अंधकार तथा बंधनों से मुक्त कराना है।
वास्तविक शिक्षा मनुष्य को असत्य और अपवित्रता से छुड़ा देती है। वह उसके विवेक को जागृत करके उसे बुद्धिवान बना देती है। गरीबी में मनुष्य को अपने जीवन में दुख और कष्ट प्राप्त होता है। शिक्षित होकर व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जाता है। उसे धन कमाकर अपनी और अपने परिवार की आजीविका चलाने की अक्ल आ जाती है। इस प्रकार शिक्षा मनुष्य को गरीबी से भी मुक्ति दिलाती है।
मनुष्य के मन में छाए हुए कई प्रकार के दुराग्रह और हठ शिक्षा के प्रभाव से मिट जाते हैं। दुर्बलता और बीमारियाँ–चाहे वे व्यक्ति के मन से सम्बन्धित हों या शरीर से संबंधित हों-शिक्षा के प्रभाव से मिट जाया करती हैं।
शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास करना है। शिक्षा आदमी को सामाजिक व्यवहार श्रेष्ठ तरीके से करना सिखलाती है। शिक्षित होकर ही व्यक्ति देश की मुख्य धारा से सही रूप से जुड़ता है तथा राजनीतिक क्षेत्र में अपनी भागीदारी निभाता है।
शिक्षा के संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी अर्थात ‘बापू कहते हैं। ‘‘मैने हृदय की शिक्षा को अर्थात चरित्र के विकास को हमेशा पहला स्थान दिया है।....मैंने चरित्र के विकास को शिक्षा की बुनियाद माना है। यदि बुनियाद पक्की है, तो अवसर मिलने पर बालक दूसरी बातें किसी की सहायता से या अपनी ताकत से खुद जान सकते हैं।’’
गाधी जी चाहते थे कि शिक्षित होकर विद्यार्थी देश की बागडोर सँभालने के लिए योग्य बन जाएं। एक दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य भावी युवा पीढ़ी में राष्ट्रप्रेम के संस्कार डालना तथा उन्हें राष्ट्र के प्रति, समाज के प्रति उनके कर्तव्यों को निभाने की जिम्मेवारी के योग्य बनाना है।
इस सम्बंध में सन् 1927 ई, में ‘यंग इण्डिया’ पत्र में बापू ने लिखा-
‘‘...विद्यार्थियों को राष्ट्र का निर्माता बनाना है।...उन्हें अपने और समाज के दकियानूसी विचारों के सुधारों की अगुवाई करनी चाहिए। विद्यार्थियों को उन सबकी सुरक्षा करना चाहिए जो हमारे राष्ट्र के लिए अच्छा है। ऐसी बातोंचीजों की उन्हें सुरक्षा करनी चाहिए। विद्यार्थियों को चाहिए कि वे निर्भीकता के साथ इन अनगिनत बुराइयों से समाज को मुक्त दिलाएँ, जो समाज के ऊपर छाई हुई हैं।......विद्यार्थियों को लाखों लोंगो के लिए सक्रिय होना चाहिए। उन्हें प्रांत, नगर, वर्ग और जाति के रूप में सोचने के स्थान पर विश्व के रूप में सोचना सीखना चाहिए।’’
शिक्षा व्यक्ति को विचारों और हदय की संकीर्णताओं से मुक्ति दिलाती है। धर्म, जाति, वर्ण, भाषा, वर्ग, प्रांत आदि के भेदभावों से मुक्ति दिलाना शिक्षा का उद्देश्य है।
गांधी जी विद्यार्थियों से कहा करते थे-
‘‘हिन्दू, मुसलमान, पारसी और यहूदी-ये सब तुम्हारे भाई हैं। ऐसी श्रद्धा तुममें न हो उसके अनुसार चलने की तुम्हारी तैयारी हो, तो तुम विद्यालय छोड सकते हो।’’
श्रेष्ठ शिक्षा सभी जीवों के प्रति दयाभाव सिखलाती है। शिक्षा का उद्देश्य है-विद्यार्थियों के अंदर सद्गुणों का विकास करना, दुखी प्राणियों के प्रति दया का भाव तथा दुष्ट प्राणियों के प्रति मध्यस्थता का भाव बनाए रखना।
महात्मागाँधी जी ने जिस एकादशव्रत का प्रतिपादन किया, वह विद्यार्थियों के लिए भी अनुकरणीय है। बापू की शिक्षाओं में ग्यारह प्रकार की बातें सिखलाई जाती हैं—
आहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह।
शरीरश्रम, आस्वाद, सर्वत्र भयवर्जनम।।
सर्वधर्म-समानत्व, सवदेशी भावना।
हीं एकादशा सेवावीं नम्रत्वे व्रतनिश्चये।।
शिक्षा का लक्ष्य उपरेक्त श्लोक की बातों को विद्यार्थियों के जीवन में धारण करना सिखलाना है ताकि विद्यार्थी अपने जीवन में सर्वांगीण विकास को प्राप्त कर सकें। इस श्लोक में निम्न बतों की शिक्षा दी गई है—
(1) आहिंसा अर्थात् किसी को दुख न देना
(2) सत्य अथवा सच्चाई
(3) अस्तेय अर्थात चोरी न करना
(4) ब्रह्मचर्य अर्थात मन-वचन-कर्म की पवित्रता
(5) असंग्रह अर्थात लोभवश अधिक वस्तु, धन इकट्ठा न करना
(6) शरीरश्रम अर्थात परिश्रम से जी न चुराना
(7) अस्वाद
(8) सब प्रकार के भयों को समाप्त करना
(9) सभी धर्मो में समानता का भाव रखना
(10) स्वदेशी अर्थात अपने देश की चीजों से प्रेम करना, तथा
(11) स्पर्श-भावना बनाए रखना
अस्पृश्य या स्पर्श का मतलब अछूत से है। बापू इस तरह की भेदभाव पूर्ण भावनाओं को अच्छा नहीं मानते थे इसलिए उन्होंने स्पर्श-भावना या घुल-मिलकर रहने की प्रवृत्ति पर जोर दिया।
आदर्श शिक्षा विद्यार्थियों को इस प्रकार की सभी बातें सिखलाती है।
शिक्षा की आवश्यकता
जब हमारा भारत देश आजाद हुआ तो डा. जाकिर हुसैन ने शिक्षा की आवश्यकता पर बहुत जोर दिया। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को भारत देश का प्रथम शिक्षामंत्री बनाया गया। उन्होंने देश की शिक्षा में पचार-प्रसार की कई नीतियाँ निर्धारित कीं। उन नीतियों का उद्देश्य भारत को प्रगति के पथ पर तेजी से आगे बढ़ाना था। जब देश उन्नति के रास्ते पर आगे बढ़ेगा, तभी शिक्षा का तेजी से विकास हो सकेगा।
संसार में छाए निरक्षरता और अज्ञान के अंधकार को मिटाने के लिए शिक्षा के प्रकाश की बहुत-बहुत आवश्कता है। शिक्षा से मनुष्य को जो ज्ञान, विवेक और समझदारी मिलती है, उसकी पग-पग पर मनुष्य को जरूरत पड़ती है। दैनिक जीवन के कार्यों में शिक्षा के कार्यों में शिक्षा हमारा मार्ग प्रशस्त करती है।
शिक्षा की आवश्यकता आज समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को है। सम्पन्न प्रकार की जातियाँ शिक्षा का उपयोग अपनी उन्नति और खुशहाली के लिए करती आई हैं। जबकि विपन्न या निचले स्तर की जातियों को उच्च क्षेणी के समाज ने शिक्षा-दीक्षा के क्षेत्र में ज्यादा आगे बढ़ने ही नहीं दिया। निम्न जातियों को हमेशा दबाकर रखा गया उन पर भाँति-भाँति के अत्याचार किए गए।
जब व्यक्ति पढ़-लिखकर साक्षर हो जाता है तो वह अपने ऊपर और अपने जाति के लोगों के ऊपर होने वाले अत्याचार का सामना तत्परता से करता है।
शिक्षा का मतलब ढेर सारी पुस्तकों का भार विद्यार्थियों के मस्तिष्क पर लाद देना नहीं है। बल्कि शिक्षा का अर्थ हरेक विद्यार्थी को बेहतर या श्रेष्ठ जीवन जीने योग्य बनाना है। इसलिए शिक्षा के सैद्धांतिक तत्त्वों के साथ व्यवहारिक तत्त्वों का भी योग होना चाहिए ताकि प्रत्येक विद्यार्थी अपने जीवन की मुश्किलों का बेहतर ढंग से सामना कर सके।
सही शिक्षा के अभाव में आज का युवक अपने जीवन के सही लक्ष्य से भटक गया है। वह अनेक प्रकार की बुरी आदतों और कुसंग का शिकार हो गया है।
समाज को बेहरत बनाने के लिए और राष्ट्र को उन्नति की ओर ले जाने के लिए आज शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। वर्तमान समय में हमारे राष्ट्र और हमारे समाज की स्थिति-परिस्थितियाँ संतोषजनक नहीं हैं। हमारा राष्ट्र आर्थिक दुर्बलता के दौर से गुजर रहा है, जबकि हमारे समाज में नित नई विघटनकारी शक्तियाँ पैदा होकर समाज को खोखला बना रही हैं। अशिक्षा के कारण लोग अंधविश्वास और भ्रम का शिकार हो रहे हैं। असामाजिक तत्त्व भले लोगों को बहका-फुसलाकर उन्हें तोड़-फोड़ और हिंसा के लिए उत्तेजित करते हैं। सही शिक्षा-ज्ञान के अभाव में राजनैतिक लोग विद्यर्थियों का अथवा यात्रा शक्ति का अपने स्वार्थों के लिए उपयोग करते हैं।
अनपढ़ व्यक्ति की आज के पढ़े-लिखे समाज में कोई कीमत नहीं है। पढ़-लिखकर ही व्यक्ति समाज के बीच बैठने योग्य बनता है तथा सभ्य कहलाता है। आदिम समाज शिक्षा नहीं थी इसलिए उस समय का आदमी जंगली कहलाता था। वह वनमानुष और जंगली जानवरों की तरह जंगलों में नंगा घूमता-फिरता था। आज भी कुछ आदिवासी प्रकार की जाति, शिक्षा-ज्ञान के अभाव में इसी प्रकार की कहीं-कहीं देखी जाती हैं।
शनैः-शनैः व्यक्ति ने आग जलाना, कपड़े पहनना सीखा। लिपि का अविष्कारक तो बहुत बाद में हुआ। मुद्रणकला के अविष्कार से मानव के बौद्धिक जगत में एक नई प्रकार की क्रांति, एक नई प्रकार की जाग्रति आई।
समाज-सुधार के लिए अथवा बिगड़े हुए मनुष्यों के लिए आज शिक्षा की बहुत जरूरत है। शिक्षा मानव को ये संस्कार प्रदान करती है। वह मनुष्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में सहायक बनती है। शिक्षा मनुष्य की जीवन-साथी की तरह है जिसकी आवश्यकता मनुष्य को पग-पग पर पड़ती है। वह श्रेष्ठ गुरु की तरह मनुष्य के जीवन को आलोकित कर उसे मार्गदर्शन प्रदान करती है।

किशोरावस्था की समस्याएं एवं समाधान ******


किशोरावस्था की समस्याएं एवं समाधान ******
किशोरावस्था एक ऐसी संवेदनशील अवधि है जब व्यक्तित्व में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। वे परिवर्तन इतने आकस्मिक और तीव्र होते हैं कि उनसे कई समस्याओं का जन्म होता है। यघपि किशोर इन परिवर्तनों को अनुभव तो करते हैं पर वे प्राय: इन्हें समझने में असमर्थ होते हैं। अभी तक उनके पास कोई ऐसा स्रोत उपलब्ध नहीं है जिसके माध्यम से वे इन परिवर्तनों के विषय में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त कर सकें। किन्तु उन्हें इन परिवर्तनों और विकास के बारे में जानकारी चाहिए, इसलिये वे इसके लिए या तो सम-आयु समूह की मदद लेते हैं, या फिर गुमराह करने वाले सस्ते साहित्य पर निर्भर हो जाते हैं। गलत सूचनाएं मिलने के कारण वे अक्सर कई भ्रांतियों का शिकार हो जाते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व विकास पर कुप्रभाव पड़ता है।
*किशोरों में सामजिक-सांस्कृतिक मेलजोल के फलस्वरूप कुछ और परिवर्तन भी आते हैं। सामान्यता: समाज किशोरों की भूमिका को निश्चित रूप में परिभाषित नहीं करता। फलस्वरूप किशोर बाल्यावस्था और प्रौढावस्था के मध्य अपने को असमंजस की स्थिति में पाते हैं। उनकी मनौवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समाज द्वार महत्व नहीं दिया जाता, इसी कारण उनमें क्रोध, तनाव एवं व्यग्रता की प्रवृतिया उत्पन्न होती हैं। किशोरावस्था में अन्य अवस्थाओं की उपेक्षा उत्तेजना एवं भावनात्मकता अधिक प्रबल होती है।
*शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिपक्वता की प्रक्रिया से गुजरते हुए किशोरों में स्वतंत्र रहने की प्रवृति जाग्रत होती है। जिससे वे अपने आप को प्रौढ़ समाज से दूर रखना प्रारंभ करते हैं।आधुनिक युग का किशोरे अलग रूप से ही अपनी संस्कृति का निर्माण करना चाहता है जिसे उप संस्कृति का नाम दिया जा सकता है। यह उप-संस्कृति धीरे-धीरे समाज में विधमान मूल संस्कृति को प्रभावित करती है।
किशोरावस्था के बच्चो का ध्यान बहुत रखना पड़ता है |उनसे मित्रवत व्यवहार करके|आप स्वयं को उनके स्थान पर रख कर देखो की आपने उस उम्र में क्या किया था फिर आप उनसे उम्मीदे लगाये|दूसरे के बच्चों की खूबियाँ अपने बच्चे में न ढूंढे अपने बच्चे की खूबियों को निखार कर लाये|
बच्चे वो फूल होते है जो की जीवन के बगीचे में सवरतें हैं|फिर वो फूल गुलाब का हो या फिर सूरजमुखी सुंदर तो दोनों दिखते है तो फिर हम अपने बच्चे की तुलना दूसरे बच्चो से क्यों करे?
किशोरावस्था एकऐसी अवस्था होती है जहाँ बच्चे न तो छोटे में गिने जाते हैं और न ही बड़े में | हमें सबसे पहले शुरू से अर्थात बचपन से जब बच्चा घुटनों पर चलना सीखता है तब से ही उसकी छोटी छोटी बातों पर ध्यान रखना चाहिए, बच्चा है तो जिद्द करेगा ही किन्तु हमें सयंम से ध्यान रखकर ही उसकी जिद्द को पूरी करनी चाहिए|
क्योकि आदत कि शुरुआत वहीँ से होती है| फिर बच्चे के बड़े होने के साथ उन्हें जीवन के हर सही गलत की पहचान करवानी चाहिए| उन्हें जैसे वो बड़े हों तभी उन्हें अनुशासित जीवन का तरीका बताएं, साथ ही स्वयं भी अनुशासन में रहें|यदि हम स्वयं अपने से बड़ों को जवाब देगे तो बच्चा वही सीखेगा एवम बाद में पलट कर जवाब देगा जो कि हमें अच्छा नहीं लगता और हम शुरू हो जाते है कि बच्चे तो हमारा सुनते ही नहीं|
किशोरावस्था में प्रवेश के पहले ही हमें बच्चों दुनियादारी के बारे में धीरे धीरे बताना चाहिए कि जीवन में क्या गलत होता है|उनका मस्तिष्क विकार होने से पूर्व ही हमें उनके मस्तिष्क का विकास करना चाहिए|यदि उनके मस्तिष्क में सकारात्मक सोच शुरू से बैठ गयी तो उनका जीवन दूसरों को भी रौशनी देगा|हमें उनकी भावनाओं को समझना चाहिए|किसी भी चीज़ का निवारण दंड नहीं होता इसे हमेशा ध्यान रखना चहिये|ये किशोरावस्था नदी की तेज़ वेग की लहर के समान होती है जिसमें बहुत सयंम के साथ तैरना पड़ता है|
अंतमें .... बढ़ते बच्चों की जिम्मेदारी हम सभी की है जिसमें परिवार,विद्यालय,समाज,सभी जम्मेदारी ले तो बच्चे कभी भी अनुशासनहीन नहीं बन सकते|

कैसे बढ़े शिक्षा की गुणवत्‍ता : एक शिक्षक का दृष्टिकोण


कैसे बढ़े शिक्षा की गुणवत्‍ता : एक शिक्षक का दृष्टिकोण

शिक्षक समाज की सर्वाधिक संवदेनशील इकाई है। शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते- यह आरोप तो सर्वत्र लगाया जाता है। लेकिन यह विचार कोई नहीं करता कि उसे पढ़ाने क्यों नहीं दिया जाता ? आए दिन गैर-शैक्षिक कार्यों में इस्तेमाल करता प्रशासन, शिक्षकों की शैक्षिक सोच को, शैक्षिक कार्यक्रमों को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है। बच्चों को पढ़ाना-सिखाना सरल नहीं होता और न ही बच्चे फाईल होते हैं। प्रशासनिक कार्यालय और अधिकारीगण शिक्षा और शिक्षकों की लगातार उपेक्षा करते हैं। उन्हें काम भी नहीं करने देते। इसी कारण स्कूली शिक्षा में अपेक्षित सुधार सम्भव नहीं हो पा रहा है।
सुधार के लिए क्या करें
स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए हमें स्कूलों के बारे में अपनी परम्परागत राय को बदलना होगा। अभी स्कूलों को कार्यालय समझकर, शिक्षकों को प्रतिदिन अनेक प्रकार की डाक बनाने और आँकड़े देने के लिए मजबूर किया जाता है। इससे बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान होता रहता है। बच्चे अपने शिक्षकों से सतत् जुड़े रहना चाहते हैं, विशेषकर प्राथमिक स्तर पर। अत: स्कूलों को कार्यालयीन कामकाज से वास्तव में मुक्त कर प्रभावी शिक्षण संस्थान बनाया जाना चाहिए।

 
विद्यालय बनाम सामुदायिक शिक्षण केन्द्र
हमारे शासकीय विद्यालय बाल शिक्षण (6-14 आयु वर्ग के बच्चों) के लिए कार्य कर रहे हैं। शिशु शिक्षण के लिए संचालित आँगनवाड़ी और प्रौढ़ शिक्षा के लिए कार्यरत सतत् शिक्षा केन्द्रों का सम्बंध विद्यालय से कहने भर को है। वास्तव में इन सभी के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है। यदि इन तीनों एजेंसियों को एकीकृत कर दिया जाए तो 3 से 50 वर्ष तक के लिए शिक्षण की बेहतर व्यवस्था सम्भव है|
यह भी जरूरी है कि आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, शिक्षक और सतत शिक्षा केन्द्रों के प्रेरक को एक साथ मिल-बैठकर कार्य करने के लिए तैयार किया जाए। यदि तीनों एजेन्सी एकीकृत स्वरूप में कार्य करने लगे तो सम्भव है स्कूल की कार्यावधि 12 से 14 घण्टे प्रतिदिन तक हो जाए। साथ ही समुदाय के सभी वर्गों के लिए स्कूल में प्रवेश और सीखने के अवसर बढ़ सकते हैं।
अभी अधिकांश स्कूल अन्य सरकारी कार्यालयों की तर्ज पर  10 से 5 की अवधि में ही खुलते हैं। इस कारण से रोजगार में जुटे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनुपयोगी सिध्द हो रहे हैं। स्कूल की समयावधि सरकारी नियंत्रण में होने के कारण बच्चों की उपस्थिति और सीखने का समय कमतर होता जा रहा है। स्कूली उम्र पार कर चुके किशोरों, युवाओं, महिलाओं और कामकाजी लोगों के लिए स्कूल के दरवाजे एक तरह से बन्द ही हैं। विद्यालय समाज की लघुतम इकाई के रूप में ''सामाजिक शिक्षण केन्द्र'' के रूप में कार्य कर सकते हैं। इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में पहल किए जाने का दायित्व स्थानीय ''पालक शिक्षक संघ'' पूरा कर सकते हैं। अगर समाज की जरूरत के चलते चिकित्सालय और थाने दिन-रात खुले रह सकते हैं, तो यह भी उतना ही आवश्यक है कि विद्यालय कम-से-कम 12-16 घण्टे जरूर खुलें।

शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक हो
शैक्षणिक सुधार में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण है। पाठयपुस्तकों और पाठयक्रम के अनुरूप प्रभावी शिक्षण, शिक्षकों की योग्यता, सक्रियता और पढ़ाने के कौशल पर निर्भर है। एक शिक्षक, एक साथ कितनी कक्षाओं के कितने बच्चों को भली-भाँति पढ़ा सकेगा, इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।
आदर्श रूप में एक शिक्षक अधिकतम 20 बच्चों को ही ठीक प्रकार पढ़ा सकता है। वह भी तब, जब वे भी एक समान स्तर के हों। अभी व्यवस्था यह है कि एक शिक्षक 40 बच्चों को (और वे भी अलग-अलग स्तरों के हैं) पढ़ाएगा। अनेक स्कूलों में तो 70-80 से भी अधिक बच्चों को पढ़ाना पड़ रहा है। ऐसे में शिक्षक मात्र बच्चों को घेरकर ही रख पाते हैं पढ़ाई तो सम्भव ही नहीं। शिक्षक बच्चों को पढ़ा भी पाएँ, इस हेतु शिक्षक-छात्र अनुपात को व्यवहारिक बनाना होगा।

प्रशिक्षणशिक्षण और परीक्षण
स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए शिक्षण विधियों, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी सुधार करने की जरूरत है। अभी शिक्षण की विधियाँ राज्य स्तर से तय की जाती हैं। कक्षागत शिक्षण कौशलों को या तो नकार दिया जाता है या उन्हें परिस्थितिजन्य मान लिया जाता है।
अच्छे प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण का दायित्व कर्तव्यनिष्ठ, योग्य और क्षमतावान प्रशिक्षकों को सौंपा जाना चाहिए। शिक्षकों के प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने, शिक्षण में नवाचारी पध्दतियाँ विकसित करने सहित परीक्षण (मूल्यांकन) की व्यापक प्रविधियाँ तय कर उन्हें व्यवहारिक स्वरूप में लागू करने की दिशा में कारगर कदम उठाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि हर प्रदेश में एक ''शैक्षिक संदर्भ एवं स्त्रोत केन्द्र'' विकसित किया जाए।

शिक्षास्वास्थ्य और रोजगार मूलक परियोजनाएँ
शिक्षा के क्षेत्र में अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं। रोजगार और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी शासकीय स्तर पर परियोजनाएँ और कार्यक्रम लागू किए गए हैं। मानव विकास के बुनियादी सूचकांक होते हुए भी इनमें तालमेल न होने के कारण इनकी गति अपेक्षित नहीं है। धन की गरीबी से ज्ञान की गरीबी का विशेष सम्बंध है। ग्रामीण दूरस्थ अँचलों में ज्ञान की गरीबी पसरी हुई है। जानकारी के अभाव में वे संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाते। अनेक परियोजनाओं के बावजूद उनकी प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और बुनियादी रोजगार की प्रक्रियाएँ बाधित होती हैं। अब समय आ गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए लागू परियोजनाओं को समेकित ढ़ंग से किसी सुनिश्चित क्षेत्र में लागू कर परिणामों की समीक्षा की जाए। अच्छे परिणाम आने पर उन्हें पूरे देश भर में लागू किया जाए। इस प्रकार हम अपने संसाधनों और मानवीय क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर सकेंगे जिससे शिक्षा के गुणात्मक विकास की संभावनाएँ बढ़ेंगीं।

पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें
अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी। नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है। यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं। यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं। कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है। बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है।

शैक्षिक उद्देश्य
स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए  हमें वर्तमान शैक्षिक उद्देश्यों को भी पुनरीक्षित करना होगा। शिक्षा, महज परीक्षा पास करने या नौकरी/रोजगार पाने का साधन नहीं है। शिक्षा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास, अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास करने और स्वथ्य जीवन निर्माण के लिए भी जरूरी है। शिक्षा प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त करे, तभी वह सार्थक सिध्द हो सकती है। कहा भी गया है ''सा विद्या या विमुक्तये''। अभी पढ़े-लिखे और गैर पढ़े-लिखे व्यक्ति के आचरण और चरित्र में कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता। उल्टे पढ़-लिख लेने के बाद तो व्यक्ति श्रम से जी चुराने लगता है और अनेक प्रकार के दुराचरणों में लिप्त हो जाता है। यह स्थिति एक तरह से हमारी वर्तमान शैक्षिक पध्दति की असफलता सिध्द करती है। अतः यह जरूरी है कि शिक्षा के उद्देश्यों को सामयिक रूप से परिभाषित कर पुनरीक्षित किया जाए।

शिक्षकों को ''शिक्षक'' के रूप में अवसर मिले
समान कार्य के लिए समान कार्य परिस्थितियाँ और समान वेतन की अनुशंसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में और मानव अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 21, 22, और 23 में वर्णित होते हुए भी नाना नामधारी शिक्षक मौजूद हैं। एक ही विद्यालय में अनेक प्रकार के शिक्षकों के पदस्थ रहते सभी के मन में घोषित-अघोषित तनावों के कारण पढ़ाई में व्यवधान हो रहा है। इस परिस्थिति को गम्भीरता से समझे बगैर और परिस्थितियों में सुधार किए बगैर भला शिक्षण में सुधार कैसे होगा? शासन को सभी शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत शिक्षकों के लिए एक समान कार्यनीति, समान पदनाम, समान वेतनमान देने की नीति तय कर एक निश्चित कार्यावधि के बाद पदोन्नति देने का भी ऐलान करना चाहिए।

श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ता
शैक्षिक परिवर्तन के लिए शिक्षकों का मनोबल बनाए रखने और उत्साहपूर्वक कार्य करने की इच्छाशक्ति पैदा करने के लिए संगठित प्रयास करने होंगे। अभी शिक्षा व्यवस्था में बालकों और पालकों की भागीदारी न्यूनतम है, इसलिए सभी शैक्षिक कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते हैं। स्कूलों में भी जिस प्रकार समर्पित स्वयंसेवकों की आवश्यकता है, वे नहीं हैं। अत: यह आवश्यक है कि श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की जानी चाहिए।

शिक्षकों का मनोबल बढ़ाया जाए
समूची दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों में प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और प्रशासनिक दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है। साथ ही ऐसी शिक्षा नीति बनाई जाती है जिसमें उनका मनोबल सदैव ऊँचा बना रहे। जब तक अनुभव जन्य ज्ञान, और कौशलों को महत्व नहीं दिया जाएगा तब तक ''बालकेन्द्रित शिक्षण'' की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती है। बाल केन्द्रित शिक्षण के लिए कार्यरत शिक्षकों की दक्षता और मनोबल बढ़ाए जाने की आवश्यकता है।
यह आवश्यक है कि शिक्षकों को उनके व्यक्तित्व विकास की प्रक्रियाओं सहित ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों में भेजा जाए जहाँ उन्हें अपने अन्दर झाँकने ,कुछ बेहतर कर गुजरने की प्रेरणा मिल सके। इस प्रशिक्षण उपरान्त उन्हें कार्यरत स्थलों पर ''ऑन द जॉब सपोर्ट'' के रूप में ऐसे सहयोगी दिए जाएँ जो उनकी वास्तविक मदद करें। किसी ऐसी संस्था को इस दिशा में काम करने की जरूरत है जो सामाजिक बदलाव के लिए व्यापक दूरदृष्टि और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम करने के लिए सहमत हो और उसके पास स्वयं के संसाधन भी उपलब्ध हों।
आज जरूरत इस बात की है कि किसी प्रकार पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में परिवर्तन लाने के लिए विद्यालय प्रशासन, शिक्षकों और शैक्षिक कार्यक्रमों में तालमेल बनाया जाए। समुदाय की शैक्षिक आवश्यकताओं को पहचान कर उनकी जरूरतों के अनुरूप निर्णय लेते हुए ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है जिसमें व्यवसायिक योग्यता में वृध्दि सुनिश्चित हो। शिक्षा के प्रशासन एवं प्रबन्धन में उत्तरदायी भूमिका निभाने वाले संस्था प्रधानों की नियुक्ति और प्रशिक्षण हेतु शिक्षा विभाग एवं शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे अन्य संगठनों को शीघ्र कारगर कदम उठाना चाहिए। संस्था प्रधानों की भूमिका को सशक्त बनाए बगैर शिक्षा में सुधार की सम्भावनाएँ अत्यन्त क्षीण रहेंगी।

प्रशासनिक एवं प्रबन्धकीय व्यवस्थागत सुधार
शिक्षा प्रशासन की यह नियति बन गई है कि इसमें उच्च शिक्षा स्तर पर भी स्थायित्व नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 और कार्ययोजना 1992 में स्वीकृत अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना आज तक नहीं हो पाई है। लगभग हर स्तर पर निर्णायक पदों पर नियुक्त प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शिक्षा क्षेत्र में आ रही गिरावट और असफलता के लिए उत्तरदायी नहीं माने जाते। हाँ, किसी छोटी-सी सफलता का श्रेय अवश्य हासिल करते नजर आते हैं। शिक्षा में सुधार के लिए कार्यरत शिक्षकों को समर्थन देने की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षा के प्रबन्धन और प्रशासन को सुधारा जाए। म.प्र. शासन द्वारा वर्ष 2003 में गठित ''स्पेशल टास्क फोर्स'' की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की भी आज महती आवश्यकता है जो एक दस्तावेज में सिमट कर रह गई हैं। म.प्र. देशभर में सर्वप्रथम जन शिक्षा अधिनियम तैयार कर लागू करने वाले प्रदेश के रूप में है। क्रियान्वयन के स्तर पर जरूर अनेक कार्य अभी शेष हैं जिसमें प्रमुख कार्य सभी स्तरों पर कार्यरत शिक्षा केन्द्रों के संचालन हेतु मैनुअल (संचालन मार्गदर्शिकाओं) का सृजन और उन्हें लागू करना है, ताकि कार्यरत स्टाफ बेहतर प्रदर्शन कर सके। प्रदेश के सभी जनशिक्षा केन्द्रों को प्रबन्धन और प्रशासन के प्रति उत्तरदायी भूमिका सौंपते हुए जनशिक्षा केन्द्र प्रभारी को आहरण वितरण अधिकार दिए जाने चाहिए। यह अत्यंत आवश्यक है कि समग्रत: शिक्षा व्यवस्था को नियंत्रित किए जाने हेतु राज्य की शिक्षा नीति तैयार की जानी चाहिए। कार्यरत शिक्षकों की दक्षता का सम्मान और उनकी कार्यदक्षता का उपयोग किए जाने की दृष्टि से विभागीय दक्षता परीक्षा का आयोजन कर सभी को प्रन्नोत किया जाना चाहिए। अंतत: शैक्षिक सुधार के लिए अब हमें विचार करने की बजाय कर्तव्य की ओर बढ़ना होगा।  
आज शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार की दृष्टि से शीघ्र सार्थक कदम उठाते हुए हमें ऐसी शिक्षण पध्दति और कार्यक्रम विकसित करने होंगे जो बच्चों के मन में श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करें। समग्रत: एक ऐसा प्रभावी शैक्षिक कार्यक्रम बनाना होगा जिसमें -
  1. पाठ्यक्रम लचीला और गतिविधि आधारित हो, साथ ही बच्चों की ग्रहण क्षमता के अनुरूप भी।
  2. कक्षागत पाठ्य योजनाएँ, स्वयं शिक्षकों द्वारा तैयार की जाएँ और उन्हें पूरा किया जाए।
  3. राज्य की शिक्षा नीति निर्धारण में शिक्षाविदों और कार्यरत शिक्षकों को वास्तव में सहभागी बना कर सभी के विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाए।
  4. जन भागीदारी समितियाँ (पालक शिक्षक संघ) प्रबन्धन का दायित्व स्वीकारें - शैक्षिक प्रशासन तंत्र भी शालाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें। शिक्षण का अधिकार शिक्षकों को वास्तव में सौंपा जाए।
  5. शिक्षण विधियों में परिवर्तन करने का अधिकार शिक्षकों को हो, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं।
  6. कक्षाओं में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक किया जाए, साथ ही पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक सामग्री की पूर्ति और शिक्षकों की भर्ती की जाए।
  7. पाठ्यपुस्तकों की रचना स्थापित रचनाकारों की बजाय शिक्षकों और शिक्षा विशेषज्ञों के माध्यम से की जानी चाहिए, जो शैक्षिक दृष्टि से उपयुक्त हो।
  8. शैक्षिक सुधारों को लागू करने में संस्था प्रधानों और शिक्षकों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाए।
  9. शिक्षकों के सहयोग हेतु ''राज्य शिक्षक सन्दर्भ और स्त्रोत केन्द्र'' स्थापित किए जाएँ।
  10.  विद्यालयों को सामुदायिक शिक्षण के लिए उत्तरदायी बनाया जाए।